१९४७ के पश्चात भारतीय राजनीति का विकासक्रम एक अपूर्वकथनीय किन्तु प्रगतिशील पथ पर रहा
एक से अनेक
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में स्वतंत्रता के बाद की अवधि में एक जबरदस्त स्थिति प्रेरित विकास आया है। 1947 के पूर्व, अर्थात, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) ही भारतीय लोगों की मुख्य राजनीतिक आवाज थी, जबकि अन्य भी अनेक छोटे राजनीतिक दल थे जिनका प्रभाव क्षेत्रीय स्तर पर जनसंख्या के छोटे समूहों पर था।
1947 के बाद जब ब्रिटिश यहाँ से चले गए, तो भारत ने शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली का अनुपालन किया, और स्वयं को एक संरचित संविधान प्रदान किया जिसका निर्माण विद्वत्तापूर्ण संविधान सभा द्वारा किया गया था। भारत में पहले आम चुनाव वर्ष 1951 में संपन्न हुए थे जिसमें कांग्रेस पार्टी विजयी हुई थी, और इसी पार्टी ने वर्ष 1977 तक अबाध रूप से देश पर शासन किया। वर्ष 1975 में अधिरोपित किये गए राष्ट्रीय आपातकाल का देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने पर काफी हानिकारक प्रभाव पडा। इसके परिणामस्वरूप 1977 के वर्ष ने भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर एक नई लहर को देखा जब स्वतंत्र भारत में पहली बार श्री मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। जनता पार्टी अवसर के अनुरूप विभिन्न राजनीतिक दलों का एक गठबंधन था जिनकी विचारधाराएं भिन्न थीं और जहाँ प्रत्येक नेता की अपनी महत्वाकांक्षाएं और आकांक्षाएं थीं। इस सरकार में लगातार आतंरिक विवाद जारी रहे जिसके कारण यह केवल दो वर्ष तक ही अस्तित्व में रह पाई। इस अवधि में अनेक शक्तिशाली क्षेत्रीय दल उभरे जो अपने-अपने विशिष्ट क्षेत्रों में व्यस्त रहे और भविष्य के राष्ट्रीय खिलाडी के रूप में उभरे।
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राव सरकार व १९९१ का उदारीकरण
1990 के दशक ने भारतीय अर्थव्यवस्था को कई दबावों के तहत विखंडन को देखा जिनमें सोवियत संघ का पतन, मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध घरेलू कलह, औद्योगिक गतिविधि का पतन, और विदेशी विनिमय भंडार का चिंताजनक संकुचन शामिल थे। इसका परिणाम पी वी नरसिंह राव (भा. रा. कां) की अल्पमत सरकार और गठबंधन राजनीति के उदय में हुआ। इस अवधि के दौरान एक-दलीय राजनीति का वर्चस्व समाप्त हुआ और और गठबंधन की राजनीति समय की मांग बन गई। तब से वर्ष 2014 तक विभिन्न गठबंधन सरकारें बनीं और इनमें से कुछ सरकारें ही अपना कार्यकाल पूरा कर सकीं यह कोई मजबूत राजनीतिक प्रभाव पैदा कर सकीं।
चूंकि गठबंधन सरकारों की अपनी अंतर्निहित कमजोरियां थीं, इसका परिणाम यह हुआ कि केंद्र में सरकार तो थी परंतु परिवर्तनकारी शासन का अभाव था। गठबंधन के सहयोगी स्वयं के व्यक्तिगत और क्षेत्रीय स्वार्थों के लिए सरकार पर अनावश्यक दबाव बनाते थे। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद चरम पर था। अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सरकारें लगभग दुष्क्रियाशील थीं। सामान्य मतदाता धीरे-धीरे यह समझ गया कि इस प्रकार की व्यवस्था उसके लिए हितकारी नहीं है।
मई 2014 के आम चुनावों ने लगभग तीन दशकों की गठबंधन की राजनीति का अंत किया। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (BJP) को मजबूत बहुमत प्राप्त हुआ और उसने केंद्र में बहुमत की सरकार बनाई। यह स्पष्ट रूप से परिवर्तन का संकेत था।
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हालांकि इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का आकर्षण समाप्त हो चुका है। 2014 के बाद हुए अनेक विधान सभा चुनावों ने इस तथ्य को काफी मजबूती से स्थापित किया है। भारत जैसे विशाल देश में सामान्य जनता की स्थानीय चुनौतियाँ अकेले केंद्र सरकार द्वारा प्रभावी रूप से हल नहीं की जा सकती हैं।
अनेक कारकों के एक साथ आ जाने से भारतीय राजनीति तीव्र परिवर्तन के दौर में है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा विमुद्रीकरण (नोटबंदी) लाने से केंद्र-राज्य संबंधों में अनेक प्रकारों की अस्थिरता आ गयी है। आने वाली वस्तु और सेवा कर व्यवस्था राजकोषीय रिश्तों को पुनर्परिभाषित कर रही है. और सहयोगी संघवाद पर एक जीवंत बहस इस विकास प्रक्रिया को और रंगीन बना रही है। इन संबंधित मुद्दों पर आप बोधियों को पढ़कर भारतीय राजनैतिक व्यवस्था की समग्र समझ पा सकते हैं।
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विपक्षी दल आरोप लगाते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की बड़ी-बड़ी योजनाओं से भारत का संघीय ढांचा एक चालाक (सूक्ष्म) हमले की चपेट में है, क्योंकि उन योजनाओं में "केंद्र के नज़रिये" से ही ब्रांडिंग आदि होती है और भारत के संघीय ढांचे की अवहेलना होती है। एक उदाहरण - प्रधानमंत्री जन धन योजना।
एकात्मक से चले संघीय, और वो भी भ्रष्ट पद्धति से!
भारत के लगभग सभी राजनीतिक दलों की - राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और छोटे दल मिला कर - एक बड़ी खामी है सच्चे आतंरिक लोकतांत्रिक चुनावों का अभाव। अतः, एक विशिष्ट स्थिति बन गयी है - एक संघीय लोकतान्त्रिक देश भारत को वे दल चला रहे हैं जिनके सत्ता ढांचे बुरी तरह से केंद्रीयकृत हो चुके हैं (तथाकथित "हाई कमांड")। एक परिपक्व मतदाता समूह अब ये नाटक समझने लगा है। समय के साथ, वो उन दलों को दण्डित करेगा जो स्थानीय हितों और चिंताओं को सही ढंग से प्रतिनिधित्व नहीं देते हुए बाहर से नेता थोपते हैं। एक पूरी तरह से अपारदर्शी चुनावी निधियां प्रक्रिया के साथ, ये भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की दूसरी सबसे बड़ी कमज़ोरी है।
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और ये है आज तक के सभी लोकसभा अध्यक्षों की सूची
किसी भी राजनीतिक समीकरण में भारतीय मतदाता सबसे अप्रत्याशित बना हुआ है। भारतीय जनसंख्या का संयुक्त अचेतन अनेक आश्चर्य देने में सक्षम है। भारत विकसित हो रहा है और यह हमारे लिए एक रोचक समय है।
प्रधानमंत्री मोदी तकनीक और दूरदृष्टि की मदद से महत्वपूर्ण प्रशासनिक प्रक्रियाओं को पुनर्गठित के अभियान पर चले हैं। ये एक आरामदायक यात्रा तो नहीं होगी। किन्तु वे प्रतिबद्ध दिख रहे हैं, जैसा की योजनाओं की लंबी सूची दिखाती है।
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