एक शब्द के रूप में पंथ-निरपेक्षता (या धर्म-निरपेक्षता) समकालीन भारतीय राजनीति और कानून के सबसे तर्क-वितर्क से भरे विषयों में से एक है। प्...
एक शब्द के रूप में पंथ-निरपेक्षता (या धर्म-निरपेक्षता) समकालीन भारतीय राजनीति और कानून के सबसे तर्क-वितर्क से भरे विषयों में से एक है। प्रत्येक बौद्धिक समूह इस शब्द को अपने वैचारिक रंग में रंगता हुआ प्रतीत होता है, जहाँ किसी भी भिन्न मतावलंबी को एक ऐसा हीन अपराधी माना जाता है जो मानवता को नष्ट करने पर तुला हो। श्रेष्ठत्व सिद्ध करने की इस होड़ में स्वयं सत्य की ही बलि दी जाती है, क्योंकि भ्रमित दर्शक प्रत्येक समूह के छिपे प्रयोजनों के बारे में केवल अनुमान ही लगाता रह जाता है। व्यापक दृष्टि से, भारतीय समाज विविध व्याख्याओं की अधिक चिंता नहीं करता है और इसका अस्तित्व बिना किसी चिंता के निर्बाध रूप से जारी रहता है। वास्तव में दैनंदिन जीवन की अनेक चिंताएं उसपर भारी पड़ती हैं !
विशेष रूप से आधुनिक भारत के परिप्रेक्ष्य में, अनेक अशुद्ध व्याख्याओं और हमेशा उपलब्ध पुनर्व्यख्याओं के साथ धर्मनिरपेक्षता शब्द की व्याख्याएँ की जाती हैं। अन्य लोगों द्वारा अपनी व्याख्या को सत्य के रूप में स्वीकार करवाने में प्रत्येक समूह द्वारा दर्शाया गया उत्साह - संभवतः इसे उन्माद कहना अधिक उपयुक्त होगा - जिसमें नास्तिक और साम्यवादी भी शामिल हैं, देखने में काफी रोचक लगता है !
एक युक्तिसंगत मनुष्य के दृष्टिकोण से एक विचार यह भी है कि समाज अंतर्निहित रूप से धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए, न कि राज्य। हालांकि भारत में इसका ठीक उल्टा होता दिखता है, जिससे संदेह होता है कि शायद राजनैतिक मंशाएं इस चर्चा को चला रही हैं। दुनिया में ऐसे अनेक देश हैं जिन्होंने स्वयं को स्पष्ट रूप से ईसाई राज्य घोषित किया है, जबकि ऐसे भी अनेक देश हैं जो स्वयं को इस्लामिक देश कहते हैं। परंतु फिर भी इनमें से अनेक देशों में समाज आमतौर पर धर्मनिरपेक्ष है। वे शांतिपूर्ण रूप से सह-अस्तित्व करते हैं। यदि यह पैमाना आज की भारत की स्थिति पर लगाया जाए तो इससे पहले कि न्यायोचित ठहराने का प्रयास करने वाले लोग कोई और नया तर्क प्रस्तुत करें, ये सभी तर्क शीघ्र ही गलत प्रतीत होने लगते हैं।
इस्लामिक राज्य की एक नई अवधारणा – जो संभवतः अब अपने अंत की ओर अग्रसर है –इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आइ.एस.आइ.एस.) द्वारा शुरू की गई थी। इसपर यदि हम एक सीधा सवाल पूछें – दुनिया के कितने मुस्लिम देश इस्लामिक राज्य के उसी विचार का समर्थन करते हैं जो आइ.एस.आइ.एस. द्वारा दी गई है?, तो इसका उत्तर है – बहुत कम। शायद कोई नहीं ! अतः धर्मनिरपेक्षता का मूल विचार जो स्थाई हो सकता है, वह विभिन्न समुदायों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर केंद्रित होगा, जिसमें सभी के लिए समान अवसर होंगे, बजाय इसके कि हम स्वयं राज्य की व्याख्या पर ही बलपूर्वक कट्टरवादी तरीके से आवरण चढाते रहें।
भारत का 8000 वर्षों से भी अधिक एक अत्यंत लंबा, सदृशीकरणक्षम और समृद्ध इतिहास और संस्कृति रहे हैं! पहली शहरी सभ्यता – एक ऐसी सभ्यता जो चमत्कारी रूप से लोहे और इस्पात का उपयोग नहीं करती थी, और जिसमें कोई औपचारिक सिंचाई सुविधाएं नहीं थीं परंतु फिर भी उसने 1000 से अधिक केंद्रों का निर्माण किया – वह थी सिन्धु घाटी की सभ्यता (Indus Valley civilisation), जो दक्षिण एशिया के अति विशाल क्षेत्रों को समाहित किये हुए थी। बाद में जिन विदेशी आक्रमणकारियों और विजेताओं ने भारत पर आक्रमण किया उन्होंने अपने-अपने सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्वाद इसमें जोड़े, अधिकतर पाशवी बल का प्रयोग करते हुए और अधिक विचार किये बिना, जैसा हमें नालंदा के नाश में दिखाई देता है, और इस प्रक्रिया के दौरान उन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति की अनेक मूल विशेषताओं को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया।
जब "धर्म-निरपेक्ष शब्द" के संबंध में संविधान के संदर्भ में प्रश्न उठाए जाते हैं, तो अक्सर पूछा जाने वाला एक प्रश्न है मूल संविधान में इसे शामिल नहीं किया जाना। अधिकांश टिप्पणीकारों ने अपने ढंग से इसका स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया है। संभवतः हमारे संविधान के निर्माता धर्म को राज्य और राजनीति से पूरी तरह से दूर रखना चाहते थे। क्योंकि जो नजरों से ओझल है वह अक्सर दिमाग में भी नहीं आता, संभवतः इसीलिए उन्होंने इसे जानबूझकर राजनीति से दूर रखा होगा। यह तर्क आज के शोर मचाने वाले समर्थकों द्वारा अपने दिमाग की उपज से निकाले गए तर्क को सिर के बल उल्टा कर देता है, और स्पष्ट रूप से उन्हें यह पसंद नहीं है।
इस तर्क को और अधिक महत्व तब प्राप्त हो जाता है जब हम देखते हैं कि इस शब्द को संविधान के 42 वें संशोधन (1976) के माध्यम से प्रस्तावना में शामिल करने और 44 वें संशोधन के माध्यम से बनाए रखने के बाद से ही इसे हमेशा जीवंत रखा गया और लगातार इसका उपयोग किया गया। संभवतः राजनीतिक वर्ग इस शब्द द्वारा प्रस्तुत किये गए अवसरों का अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहते होंगे – हालांकि ऐतिहासिक रूप से भारत और भारतीय लोग अपने व्यवहार में किसीके द्वारा बताए बिना भी हमेशा ही सर्वाधिक धर्मनिरपेक्ष रहे हैं ! स्वामी विवेकानंद द्वारा 1893 में शिकागो में दिया गया श्रेष्ठतम भाषण इसका सर्वश्रेष्ठ दस्तावेज है।
जो लोग भारतीय समाज की एकता और विविधता के संबंध में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, और इस संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता का उपदेश करते हैं, और उसकी पैरवी करते हैं, वे स्वयं ही सुविधाजनक रूप से इस महत्वपूर्ण विचार को नजरंदाज करते हैं कि वैचारिक विवधता धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने की दृष्टि से केंद्रबिंदु है। यदि कुछ लोग धर्मनिरपेक्षता को किसी धर्म या समुदाय विशेष के गैर-तुष्टिकरण के रूप में देखना चाहते हैं तो उनके विचारों को धर्मनिरपेक्षता के विचार से सुसंगत विचारों के एक भिन्न समुच्चय के रूप में स्वीकार क्यों नहीं किया जाना चाहिए? इस सुझाव मात्र से ही सही और गलत तर्कों के साथ रक्तरंजित वैचारिक तलवारें खिंच जाएंगी।
इन विचारों को भारतीय समाज और राजनीति की एकता के ताने-बाने के लिए हानिकारक क्यों माना जाना चाहिए? इसे ध्रुवीकरण क्यों माना जाना चाहिए? हम इस विषय को एक अलग परिप्रेक्ष्य में देखना स्वीकार क्यों नहीं कर सकते? ये सभी भविष्य की चर्चाओं हेतु रोचक विषय हैं।
काश वाकई ऐसा हुआ होता!
पिछले कुछ समय से आधुनिक भारतीय समाज पर वामपंथी वैचारिक प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अधिक हावी रहा है और यदि आप स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहलाना चाहते हैं तो आपको अपनी दृष्टि बाईं (वामपंथी) ओर रखनी होगी। अन्य सब कुछ दक्षिणपंथी और धर्मांध हैं। कुछ विचारक चीन की शानदार प्रगति की तारीफ करते हुए नहीं थकेंगे और उस समय वे अपनी सुविधा अनुसार इस बात को पूरी तरह से नजरंदाज कर देंगे कि इस एक-दलीय शासन के दौरान निरीह लोगों के खून की कितनी नदियाँ बहाई गई हैं। परंतु अपने घर में जरा भी सामाजिक उथल-पुथल हुई तो मानों आसमान टूट पड़ा हो !
भारत के सबसे महान दृष्टाओं में से एक, डॉ. अंबेडकर ने, हमारे संविधान की प्रस्तावना में "धर्म-निरपेक्ष" शब्द को शामिल करना उचित नहीं समझा। उनकी दूरदृष्टि की जड़ें मानव प्रतिष्ठा (human dignity) में थीं। महात्मा गाँधी के उद्बोधनों का प्रारंभ और अंत ईश्वर को समर्पित गीतों से होता था। परंतु स्वतंत्र भारत में संपूर्ण विचार को शायद केवल एक ही सोच के अनुसार मोड़ दिया गया।
क्या यही सच्ची विविधता है? या धर्मनिरपेक्षता है? इस मुद्दे पर हमें राजनीतिक रूप से प्रेरित इतिहासकारों के बजाय एक वास्तविक बौद्धिक बहस की आवश्यकता है। क्या भारत के वास्तविक बुद्धिवादी उठेंगे और सही बहस करेंगे? भारत को सही अर्थों में करुणा और मानवतावाद की आवश्यकता है जिससे समाज २१वी सदी की बदली हकीकत के अनुरूप तरक्की कर सके।
और इस सबके बीच, जीडीपी वृद्धि दर को बढ़ाने और नौकरियों के सृजन की हमारी तलाश लगातार जारी है!
हिन्दू धर्म पर एक व्यापक सामग्री से परिपूर्ण ये रहा एक व्याख्यान। जिन्हें विश्व के सबसे प्राचीन साधु समाज (१८९३ के स्वामी विवेकानंद के उद्बोधनानुसार) पर त्वरित जानकारी चाहिए, उनके लिए एक द्विभाषी सत्र -
नीचे दी गई कमैंट्स थ्रेड में अपने विचार ज़रूर लिखियेगा (आप आसानी से हिंदी में भी लिख सकते हैं)। इससे हमें ये प्रोत्साहन मिलता है कि हमारी मेहनत आपके काम आ रही है, और इस बोधि में मूल्य संवर्धन भी होता रहता है।
विशेष रूप से आधुनिक भारत के परिप्रेक्ष्य में, अनेक अशुद्ध व्याख्याओं और हमेशा उपलब्ध पुनर्व्यख्याओं के साथ धर्मनिरपेक्षता शब्द की व्याख्याएँ की जाती हैं। अन्य लोगों द्वारा अपनी व्याख्या को सत्य के रूप में स्वीकार करवाने में प्रत्येक समूह द्वारा दर्शाया गया उत्साह - संभवतः इसे उन्माद कहना अधिक उपयुक्त होगा - जिसमें नास्तिक और साम्यवादी भी शामिल हैं, देखने में काफी रोचक लगता है !
एक युक्तिसंगत मनुष्य के दृष्टिकोण से एक विचार यह भी है कि समाज अंतर्निहित रूप से धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए, न कि राज्य। हालांकि भारत में इसका ठीक उल्टा होता दिखता है, जिससे संदेह होता है कि शायद राजनैतिक मंशाएं इस चर्चा को चला रही हैं। दुनिया में ऐसे अनेक देश हैं जिन्होंने स्वयं को स्पष्ट रूप से ईसाई राज्य घोषित किया है, जबकि ऐसे भी अनेक देश हैं जो स्वयं को इस्लामिक देश कहते हैं। परंतु फिर भी इनमें से अनेक देशों में समाज आमतौर पर धर्मनिरपेक्ष है। वे शांतिपूर्ण रूप से सह-अस्तित्व करते हैं। यदि यह पैमाना आज की भारत की स्थिति पर लगाया जाए तो इससे पहले कि न्यायोचित ठहराने का प्रयास करने वाले लोग कोई और नया तर्क प्रस्तुत करें, ये सभी तर्क शीघ्र ही गलत प्रतीत होने लगते हैं।
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- एक बेहद धार्मिक प्रवृत्ति वाले महात्मा गाँधी और पंथ-निरपेक्षता का विचार
- गाँधी की उम्मीद ऐसे राज्य की थी जिसमें गहरी धार्मिक भावनाएं जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाशित रहे, जिसमें राजनीति भी हो। उनका भारत में दिया पहला सार्वजनिक उदबोधन, जो बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की शुरुआत पर था, उसमें ये "धार्मिक" वाक्य थे जो आँखें खोलने हेतु पर्याप्त हैं - “सत्य ही अंतिम है; प्रेम उस तक पहुंचने का मार्ग ... स्वर्णिम नियम ये है कि कुछ भी हो, हम सही कार्य ही करें। कितने भी भाषण हम दें हम स्व-शासन हेतु तैयार न होंगे, किन्तु हमारा व्यवहार हमें उस हेतु तैयार करेगा ... यदि हम भगवान् में भरोसा रखें और उससे डरें, तो हमें किसीसे भी डरने की आवश्यकता न होगी, न तो महाराजाओं से, न वायसरायों से, न जासूसों से और न सम्राट जॉर्ज से ही।”
इस्लामिक राज्य की एक नई अवधारणा – जो संभवतः अब अपने अंत की ओर अग्रसर है –इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आइ.एस.आइ.एस.) द्वारा शुरू की गई थी। इसपर यदि हम एक सीधा सवाल पूछें – दुनिया के कितने मुस्लिम देश इस्लामिक राज्य के उसी विचार का समर्थन करते हैं जो आइ.एस.आइ.एस. द्वारा दी गई है?, तो इसका उत्तर है – बहुत कम। शायद कोई नहीं ! अतः धर्मनिरपेक्षता का मूल विचार जो स्थाई हो सकता है, वह विभिन्न समुदायों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर केंद्रित होगा, जिसमें सभी के लिए समान अवसर होंगे, बजाय इसके कि हम स्वयं राज्य की व्याख्या पर ही बलपूर्वक कट्टरवादी तरीके से आवरण चढाते रहें।
भारत का 8000 वर्षों से भी अधिक एक अत्यंत लंबा, सदृशीकरणक्षम और समृद्ध इतिहास और संस्कृति रहे हैं! पहली शहरी सभ्यता – एक ऐसी सभ्यता जो चमत्कारी रूप से लोहे और इस्पात का उपयोग नहीं करती थी, और जिसमें कोई औपचारिक सिंचाई सुविधाएं नहीं थीं परंतु फिर भी उसने 1000 से अधिक केंद्रों का निर्माण किया – वह थी सिन्धु घाटी की सभ्यता (Indus Valley civilisation), जो दक्षिण एशिया के अति विशाल क्षेत्रों को समाहित किये हुए थी। बाद में जिन विदेशी आक्रमणकारियों और विजेताओं ने भारत पर आक्रमण किया उन्होंने अपने-अपने सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्वाद इसमें जोड़े, अधिकतर पाशवी बल का प्रयोग करते हुए और अधिक विचार किये बिना, जैसा हमें नालंदा के नाश में दिखाई देता है, और इस प्रक्रिया के दौरान उन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति की अनेक मूल विशेषताओं को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया।
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- बोधि श्रुति (हिंदी) उपलब्ध है - कमेंट्स थ्रेड के ऊपर देखें
- अपनी सुविधा के अनुसार, इस पूरी बोधि को आप आनंदपूर्वक सुनें और समझें! हमें अवश्य बताएं इसे और बेहतर कैसे बनाया जाये
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- गांधीजी का धर्म सिद्धांत बहुलवादी था
- “मैं विश्व के सभी महान धर्मों की मूल सत्यता में विश्वास करता हूँ। मैं मानता हूँ कि ये सभी प्रभु द्वारा अवतरित किये गए, और जिन्हें ये मिले, उनके लिए वे आवश्यक थे। और यदि हम केवल इतना कर सकें कि विभिन्न मतों (धर्मों) के धर्म-ग्रंथों को उनके अनुयायिओं के नज़रिये से पढ़ कर समझ सकें, तो हम पाएंगे कि अंततः वे सब एक समान ही थे और एक-दूसरे के लिए बेहद महत्वपूर्ण थे।”
जब "धर्म-निरपेक्ष शब्द" के संबंध में संविधान के संदर्भ में प्रश्न उठाए जाते हैं, तो अक्सर पूछा जाने वाला एक प्रश्न है मूल संविधान में इसे शामिल नहीं किया जाना। अधिकांश टिप्पणीकारों ने अपने ढंग से इसका स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया है। संभवतः हमारे संविधान के निर्माता धर्म को राज्य और राजनीति से पूरी तरह से दूर रखना चाहते थे। क्योंकि जो नजरों से ओझल है वह अक्सर दिमाग में भी नहीं आता, संभवतः इसीलिए उन्होंने इसे जानबूझकर राजनीति से दूर रखा होगा। यह तर्क आज के शोर मचाने वाले समर्थकों द्वारा अपने दिमाग की उपज से निकाले गए तर्क को सिर के बल उल्टा कर देता है, और स्पष्ट रूप से उन्हें यह पसंद नहीं है।
इस तर्क को और अधिक महत्व तब प्राप्त हो जाता है जब हम देखते हैं कि इस शब्द को संविधान के 42 वें संशोधन (1976) के माध्यम से प्रस्तावना में शामिल करने और 44 वें संशोधन के माध्यम से बनाए रखने के बाद से ही इसे हमेशा जीवंत रखा गया और लगातार इसका उपयोग किया गया। संभवतः राजनीतिक वर्ग इस शब्द द्वारा प्रस्तुत किये गए अवसरों का अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहते होंगे – हालांकि ऐतिहासिक रूप से भारत और भारतीय लोग अपने व्यवहार में किसीके द्वारा बताए बिना भी हमेशा ही सर्वाधिक धर्मनिरपेक्ष रहे हैं ! स्वामी विवेकानंद द्वारा 1893 में शिकागो में दिया गया श्रेष्ठतम भाषण इसका सर्वश्रेष्ठ दस्तावेज है।
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- शिकागो में १८९३ में स्वामी विवेकानंद - अमेरिका की बहनों व भाइयों...
- आपके द्वारा दिए गए गर्मजोशी भरे स्वागत की प्रतिक्रिया देने हेतु उठते समय मेरा ह्रदय अकथ्य आनंद से भर उठा है। विश्व के सबसे प्राचीन साधु समाज की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; मैं आपको सभी धर्मों की मां की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ; और मैं आपको सभी वर्गों के करोड़ों हिंदुओं कि ओर से धन्यवाद देता हूँ। [संपूर्ण संभाषण यहाँ पढ़ें ##link##] [संपूर्ण संभाषण (अंग्रेजी में) यहाँ पढ़ें ##file-pdf-o##]
जो लोग भारतीय समाज की एकता और विविधता के संबंध में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, और इस संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता का उपदेश करते हैं, और उसकी पैरवी करते हैं, वे स्वयं ही सुविधाजनक रूप से इस महत्वपूर्ण विचार को नजरंदाज करते हैं कि वैचारिक विवधता धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने की दृष्टि से केंद्रबिंदु है। यदि कुछ लोग धर्मनिरपेक्षता को किसी धर्म या समुदाय विशेष के गैर-तुष्टिकरण के रूप में देखना चाहते हैं तो उनके विचारों को धर्मनिरपेक्षता के विचार से सुसंगत विचारों के एक भिन्न समुच्चय के रूप में स्वीकार क्यों नहीं किया जाना चाहिए? इस सुझाव मात्र से ही सही और गलत तर्कों के साथ रक्तरंजित वैचारिक तलवारें खिंच जाएंगी।
इन विचारों को भारतीय समाज और राजनीति की एकता के ताने-बाने के लिए हानिकारक क्यों माना जाना चाहिए? इसे ध्रुवीकरण क्यों माना जाना चाहिए? हम इस विषय को एक अलग परिप्रेक्ष्य में देखना स्वीकार क्यों नहीं कर सकते? ये सभी भविष्य की चर्चाओं हेतु रोचक विषय हैं।
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- पाकिस्तान के संथापक मो. अली जिन्ना ने कहा था
- ‘किन्तु पाकिस्तान की सरकार केवल एक लोकप्रिय प्रतिनिधित्व वाली और चुनी हुई हो सकती है। उसकी संसद, और उसका मंत्रिमंडल जो संसद के प्रति उत्तरदायी हो, दोनों ही अंतिम रूप से जनता के प्रति जवाबदार होंगे और ऐसा बिना किसी जाति या धर्म के आधार पर होगा, जो अंतिम तथ्य होगा सरकार द्वारा अपनी नीतियां और कार्यक्रम बनाते हुए’
काश वाकई ऐसा हुआ होता!
पिछले कुछ समय से आधुनिक भारतीय समाज पर वामपंथी वैचारिक प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अधिक हावी रहा है और यदि आप स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहलाना चाहते हैं तो आपको अपनी दृष्टि बाईं (वामपंथी) ओर रखनी होगी। अन्य सब कुछ दक्षिणपंथी और धर्मांध हैं। कुछ विचारक चीन की शानदार प्रगति की तारीफ करते हुए नहीं थकेंगे और उस समय वे अपनी सुविधा अनुसार इस बात को पूरी तरह से नजरंदाज कर देंगे कि इस एक-दलीय शासन के दौरान निरीह लोगों के खून की कितनी नदियाँ बहाई गई हैं। परंतु अपने घर में जरा भी सामाजिक उथल-पुथल हुई तो मानों आसमान टूट पड़ा हो !
भारत के सबसे महान दृष्टाओं में से एक, डॉ. अंबेडकर ने, हमारे संविधान की प्रस्तावना में "धर्म-निरपेक्ष" शब्द को शामिल करना उचित नहीं समझा। उनकी दूरदृष्टि की जड़ें मानव प्रतिष्ठा (human dignity) में थीं। महात्मा गाँधी के उद्बोधनों का प्रारंभ और अंत ईश्वर को समर्पित गीतों से होता था। परंतु स्वतंत्र भारत में संपूर्ण विचार को शायद केवल एक ही सोच के अनुसार मोड़ दिया गया।
क्या यही सच्ची विविधता है? या धर्मनिरपेक्षता है? इस मुद्दे पर हमें राजनीतिक रूप से प्रेरित इतिहासकारों के बजाय एक वास्तविक बौद्धिक बहस की आवश्यकता है। क्या भारत के वास्तविक बुद्धिवादी उठेंगे और सही बहस करेंगे? भारत को सही अर्थों में करुणा और मानवतावाद की आवश्यकता है जिससे समाज २१वी सदी की बदली हकीकत के अनुरूप तरक्की कर सके।
और इस सबके बीच, जीडीपी वृद्धि दर को बढ़ाने और नौकरियों के सृजन की हमारी तलाश लगातार जारी है!
हिन्दू धर्म पर एक व्यापक सामग्री से परिपूर्ण ये रहा एक व्याख्यान। जिन्हें विश्व के सबसे प्राचीन साधु समाज (१८९३ के स्वामी विवेकानंद के उद्बोधनानुसार) पर त्वरित जानकारी चाहिए, उनके लिए एक द्विभाषी सत्र -
नीचे दी गई कमैंट्स थ्रेड में अपने विचार ज़रूर लिखियेगा (आप आसानी से हिंदी में भी लिख सकते हैं)। इससे हमें ये प्रोत्साहन मिलता है कि हमारी मेहनत आपके काम आ रही है, और इस बोधि में मूल्य संवर्धन भी होता रहता है।
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- बोधि कडियां (गहन अध्ययन हेतु; सावधान: कुछ लिंक्स बाहरी हैं, कुछ बड़े पीडीएफ)
- ##chevron-right## गाँधी और पंथ-निरपेक्षता यहाँ ##chevron-right## भारतीय संविधान की प्रस्तावना यहाँ ##chevron-right## क्या जिन्ना पंथ-निरपेक्ष थे? यहाँ ##chevron-right## भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता - एक विश्लेषण (अंग्रेजी में) यहाँ ##chevron-right## तक्षशिला किसने बर्बाद किया? यहाँ ##chevron-right## स्वामी विवेकानंद का ऐतिहासिक १८९३ संबोधन यहाँ
[अंग्रेजी में पढ़ें Read in English] [आप के लिए कुछ प्रेरणास्पद! ##heart-o##] [सारगर्भित बोधि खबरें ]
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