विश्व राजनीति के विवर्तनिक परिवर्तन : विहंगम दृष्टि

अरब क्रांति, ट्रम्प, सीपेक, नोट बंदी, ब्रेक्सिट प्राथमिक कक्षाओं में, भूगोल के शिक्षक एक विशेष विषय पर बात करना पसंद करते हैं – पृथ्वी क...

अरब क्रांति, ट्रम्प, सीपेक, नोट बंदी, ब्रेक्सिट


www.BodhiBooster.com, www.PTeducation.com, www.SandeepManudhane.org, Economic survey of Indiaप्राथमिक कक्षाओं में, भूगोल के शिक्षक एक विशेष विषय पर बात करना पसंद करते हैं – पृथ्वी की संरचना। वे समझाते हैं कि किस प्रकार पृथ्वी एक विशाल गोला है जिसमें ठोस और द्रव की विभिन्न परतों के विशाल खंड होते हैं। फिर वे नाटकीय रूप से घोषणा करते हैं – हम सभी लोग लगातार सरकती प्लेटों के ऊपर खड़े हैं – ऐसी विशाल प्लेटें जो अलग अलग दिशाओं में गतिमान हैं, और उनकी अचानक एक-दूसरे से टकराने की या एक-दूसरे के नीचे खिसक जाने की बुरी आदत है, जिससे भूकंप और ज्वालामुखी विस्फोट होते हैं। विवर्तनिकी प्लेटें किसी का भी सम्मान नहीं करतीं, वे अनुमान से परे हैं, और जिनमें संपूर्ण भूदृश्य को परिवर्तित करने की क्षमता है।

जैसा कि राजनीति और समाज का कोई भी विद्यार्थी हमें बता सकता है, भूगोल के शिक्षक उपरोक्त अंतिम वाक्य में बेहद सटीक थे। आपका उस नए विश्व में स्वागत है जो राजनीति, अर्थशास्त्र और व्यापार में विशाल विवर्तनिक परिवर्तनों का अनुभव कर रहा है – एक ऐसा विश्व जहाँ निश्चितता (certainty) एक लुप्त विशेषाधिकार है, अनिश्चितता रणनीति-निर्माण का एक निश्चित आधार है और नव-राष्ट्रवाद एक निश्चित प्रवृत्ति है।

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    • आज की विश्व राजनीति का भूगोल
      • आज का नागरिक एक रक्तरंजित अरब उठाव (Arab Spring) देखता है, धर्मनिरपेक्ष तुर्की के दृष्टिकोण में होते परिवर्तन को देखता है, पुनस्र्त्थानशील और आक्रामक रूस को देखता है, पुनः सैन्यीकरण को इच्छुक (?) जापान को देखता है, एक ट्रम्प-युक्त अमेरिका को देखता है, एक पूर्ण रूप से पुनर्रचित भारतीय अर्थ तंत्र को देखता है और चीन को अपनी महत्वाकांक्षाओं हेतु पाकिस्तान के बीच से गुज़रते देखता है। ये मामूली परिवर्तन नहीं हैं – हमारे भूगोल शिक्षक उन्हें विवर्तनिक परिवर्तन के रूप में परिभाषित करेंगे ! इससे पहले कि हम आज विश्व को पुनर्रचित करने वाले बलों और घटनाओं की प्रकृति को समझने का प्रयास करें आधुनिक इतिहास के पन्नों पर एक त्वरित निगाह डालना उचित होगा।


[इस बोधि को अंग्रेजी में पढ़ें]

 उन्नीसवीं सदी के अंत का विश्व 


आधुनिक विश्व का उदय व्यापक रूप से 19 वीं सदी के अंत में हुआ, जब यूरोप और अमेरिका में औद्योगिक क्रांति के प्रयास और परीक्षण हो रहे थे, और यह स्पष्ट हो गया था कि जो देश पूँजी-सघन और सस्ते श्रम-चालित औद्योगीकरण को प्राप्त कर पाएंगे उनके लिए लाभ अप्रत्याशित होंगे। अनेक लोगों ने समाज और राजनीति पर इस क्रांति के पड़ने वाले प्रभावों को काफी कमतर आंका था, और अब हम उस त्रुटि को दूर करेंगे।


औद्योगिक क्रांति और उसके सामाजिक / राजनीतिक परिणाम

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    • राजनीतिक प्रभाव
      • ##asterisk##  चूंकि कच्चे माल की बड़े पैमाने पर आवश्यकता थी, अतः उपनिवेशवाद को बढ़ावा  ##asterisk##  यांत्रिक और भाप-चालित इंजनों के क्षेत्र में अनुसंधान को गति मिली, जिसके परिणामस्वरूप परिवहन क्रांति (transportation revolution) हुई ##asterisk##  उपनिवेशों के रूप में संपूर्ण देशों का भरपूर शोषण जिसे पाशविक बल की सहायता से सुदृढ़ एक कानूनी रूप-रेखा में अंजाम दिया गया  ##asterisk##  औद्योगिक परिवर्तन में पिछड़े हुए देशों ने बाहरी ताकतों  के वर्चस्व  के रूप में इसकी भारी कीमत चुकाई। इसके तीन बड़े उदाहरण निम्नानुसार हैं (क) 1860 के दशक तक का मेइजी-पुनरुद्धार पूर्व का जापान  (ख) 1915 तक का ज़ार निकोलस द्वितीय के अधीन साम्यवाद-पूर्व का रूस, और (ग) 1949 तक माओ-पूर्व का चीन। ##asterisk##  मार्क्स द्वारा निर्मित साम्यवाद विचारधारा का उदय, जो औद्योगिक क्रांति द्वारा मचाई गई उथल-पुथल से भयाक्रांत था।
    • सामाजिक प्रभाव 
      • ##asterisk##  जीवन और प्रेम की प्राथमिक इकाई के रूप में परिवार का विनाश - जब बच्चों सहित सारे लोग 18 घंटे काम में व्यस्त हैं तो परिवार के लिए किसके पास समय है  ##asterisk##  संपूर्ण औद्योगिक विश्व में श्रम संगठनों का निर्माण, जिसके कारण संघर्ष बढे और और एक नई सामाजिक व्यवस्था का उदय  ##asterisk##  जीवन के स्वीकृत मार्ग के रूप में उपभोक्तावाद का उदय
    • पर्यावरणीय प्रभाव
      • ##asterisk##  मानवजनित वैश्विक उष्मन के युग की शुरुआत, हालांकि अब समृद्ध विश्व इसपर कम ही बात करता है  ##asterisk##  समुद्रों और अन्य जल-निकायों का विनाश ##asterisk##  संसाधन-समृद्ध क्षेत्रों का शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा दोहन और लूट 
    • सैन्य प्रभाव
      • ##asterisk##  रेलवे क्रांति और धातुओं को बड़े-स्तर पर इस्तेमाल करने की सहूलियतों ने खतरनाक पैमाने पर सैन्यीकरण को आसान बनाया। इस तर्क से हम प्रथम विश्व युद्ध में हुए असीमित रक्तपात को समझ सकते हैं। राष्ट्रों को ये समझने में थोड़ा समय लगा कि औद्योगिक क्षमताएं किस प्रकार राक्षसी ताकत बनाती चली जा रही थीं।


ज़रा देखिये, उस गौरवशाली औद्योगिक क्रांति को जो यूरोप की शक्ति विकसित कर रही है, बच्चों को खदानों में धकेल कर!




एक अन्य बात का स्मरण करा दें  – प्रारंभिक 16 वीं सदी से प्रतिस्पर्धी यूरोपीय शक्तियां - जो उस समय भी काफी जटिल संरचना थी,  और आज भी उतनी ही जटिल है! - काफी आश्वस्त थीं कि दूसरों से आगे रहने का एक ही मार्ग है और वह है सोने और चांदी के रूप में ठोस संपत्ति का संग्रह, क्योंकि ये दोनों ही काफी सीमित संसाधन हैं। वैश्विक व्यापार को एक शून्य-संचय खेल (Zero-sum game) माना जाता था, और कोई भी देश दूसरों को नीचे गिराकर ही स्वयं समृद्ध हो सकता था। यूरोपीय "विजेताओं" विश्व भर में किये गए भयंकर नरसंहार, जिसे चर्च और उसके धर्म-प्रचारकों का सहयोग प्राप्त था, इस बात की निर्लज्ज गवाही देता है कि आधुनिक सभ्य यूरोप का निर्माण कितनी रक्तरंजित नींव के आधार पर हुआ है। अमेज़न के आदिवासियों, या एक समय की गौरवशाली भारतीय सभ्यता से अधिक बेहतर इसे कौन जान सकता है!

प्रारंभिक 20 वीं सदी में जिस आधुनिक इतिहास का उदय हुआ उसे यूरोपीय देशों के अति-राष्ट्रवाद द्वारा आकार दिया गया था – फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य और अन्य। इनमें से प्रत्येक देश चाहता था कि उसका वर्चस्व कायम रहे। अमेरिका सुविधाजनक रूप से अटलांटिक के पार हजारों मील दूर स्थित था जहाँ वह शांतिपूर्वक अपनी शक्ति बढ़ा रहा था, उसे उस मुख्यभूमि यूरोप में कोई रूचि नहीं थी जिनसे ही उसने अपनी स्वतंत्रता अर्जित की थी।

परिस्थितियां ऐसे उभरीं कि यूरोपीय देशों ने अपने आप को पहले "विश्व युद्ध" में झोंक दिया, जिसमें लगभग सब देश दूसरे देश के साथ युद्धरत थे, जिसमें अतिव्यापी संधियाँ और समझौते किये जा रहे थे, जिसके कारण मित्र देशों और शत्रु देशों के बीच कोई स्पष्ट सीमा नहीं थी। 1914 से 1919 के बीच, भारी रक्तपात ने यूरोप को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया था, और संक्षेप में देखें कि उसके बाद क्या हुआ।


 पृष्ठ २ पर जारी 


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 पृष्ठ २ (५ में से) 

अमेरिका और एक नए विश्व का उदय 1945-1990 


अंतर्मुखी अमेरिका ने शीघ्र ही अपने सबक सीख लिए - सबसे मूलभूत सबक यह था कि 'ताकत अपने साथ जिम्मेदारी लाती है'। उसे एक रक्तरंजित महाद्वीपीय युद्ध में घसीटा गया – द्वितीय विश्व युद्ध –  जब विशाल अटलांटिक के पार मित्र देशों के लिए उसकी आपूर्ति श्रृंखलाओं को निर्दयी यू-बोट्स के नेतृत्व में विश्वस्त नाज़ी नौसेना ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। जब यह स्पष्ट हो गया कि केवल एक दृश्य और ताकतवर गठबंधन ही, जो एक्सिस शक्तियों (हिटलर, मुसोलिनी और जापान) को नष्ट करने के प्रति कृत संकल्प हैं, कारगर हो पायेगा, तब अमेरिका भी मैदान में कूद गया।

1945 आते-आते जर्मनी का संपूर्ण विनाश हो गया था, जापान, जिसे परमाणु आक्रमण झेलने वाले इतिहास के (अब तक के) एकमात्र देश होने का दुखद अनुभव झेलना पड़ा, ने आत्मसमर्पण कर दिया, और रूस ने एक अस्तित्ववान खतरे के लुप्त होने से राहत की सांस ली। अमेरिका निर्विवाद रूप से महाशक्ति बन गया और उसने यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए कि सभी के लिए लाभदायक वैश्विक व्यवस्था की निर्मिती हो, बजाय जय-पराजय के (या शून्य-संचय खेल)। औद्योगिक होते सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी गुट ने 1950 से 1990 तक तब तक उसे चुनौती दी जब तक कि वह विघटित नहीं हो गया। 

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    • इतने सारे विश्व !
      • इतना सब कुछ होने के बावजूद, संपत्ति विषमताएं जारी रहीं और विभिन्न देशों के असमान प्रतिस्पर्धी लाभ ने यह सुनिश्चित किया कि तीन विश्व एकसाथ अस्तित्व में हैं आये – प्रथम विश्व (समृद्ध, औद्योगिक, पश्चिमी देश जो सभी महान प्रदूषक हैं!), द्वितीय विश्व (सोवियत संघ और चीन के नेतृत्व में और कुछ अन्य देशों के साथ साम्यवादी गुट), और तृतीय विश्व (अन्य सभी देशों का समूह – विकासशील विश्व)। राष्ट्रों के इस वर्गीकरण को आज कई लोग नकारते हैं। असमता की इस आग में घी डालने का काम किया ऑक्सफेम की जनवरी रिपोर्ट ने, जिसने दावा किया कि आज ६२ लोगों के पास विश्व के आधे लोगों के बराबर संपत्ति है!


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उपरोक्त ऑक्सफेम रिपोर्ट ने बताया कि  

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    • ६२ = ३.६ अरब 
      • २०१५ में, केवल ६२ लोगों के पास विश्व के ३.६ अरब लोगों के बराबर संपत्ति थी - मानवता का निचला आधा. ये आंकड़ा २०१० के ३८८ से कम हो गया है. 
    • ५०० अरब डॉलर ५ साल में 
      • सबसे अमीर ६२ लोगों की संपत्ति २०१० के बाद ४५% बढ़ी है - अर्थात आधे ख़रब से भी ज़्यादा 
    • निचले ५०% ने १ ख़रब खोया
      • निचले आधे की संपत्ति ३८% से घटकर १ ख़रब से भी अधिक से गिर गयी 

1945 के बाद कैसे आधुनिक विश्व व्यवस्था निर्मित हुई 


जो वैश्विक ग्राम हम आज अपने इर्द-गिर्द देखते हैं, वह उन बड़े परिवर्तनों का परिणाम है जो द्वितीय विश्वास युद्ध के बाद हुए।  आइये, उनमें से कुछ की सूची बनाएं। 

आधुनिक विश्व व्यवस्था का निर्माण

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    • वैश्विक संस्थागत रूप-रेखा का निर्माण 
      • ##asterisk##  ब्रेटन वुड्स सम्मेलन (Bretton Woods) ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (IMF) और विश्व बैंक (World Bank) का निर्माण किया, जो मुख्य रूप से उन शक्तियों को समाप्त करने हेतु बने जिन्होंने विभिन्न देशों को रक्तरंजित युद्ध में धकेला था  ##asterisk##  संयुक्त राष्ट्र संघ के झंडे तले अन्य अनेक वैश्विक संस्थाओं का निर्माण किया गया ताकि एक नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था अंतर्भूत की जा सके ##asterisk##  अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को सुलझाने के लिए संधियाँ, सम्मेलन और समझौते नियमित रूप से किये जाने लगे
    • क्षेत्रीय गठबंधन 
      • ##asterisk##  हमेशा युद्धरत यूरोपीय देशों ने यह महसूस किया कि आपसी संघर्षों ने उनकी संपूर्ण जीवन-शक्ति को कमजोर कर दिया है, अतः वे एकसाथ आये और उन्होंने पहली प्रमुख परा-राष्ट्रीय पहचान का निर्माण किया  – जिसे यूरोपीय संघ (EU) कहा जाता है। उसके बिखरने के संकेत तब मिले लगे जब ब्रिटेन ने छोड़ने का निर्णय लिया, जिसे हम ब्रेक्सिट (Brexit) के नाम से जानते हैं।  ##asterisk##  आसियान, ब्रिक्स, आरसीईपी, कैरीकॉम और अन्य अनेक क्षेत्रीय / वाणिज्यिक समूहों ने देशों को आपस में निकट लाने का काम किया, और इससे सुनिश्चित हुआ कि अंततः शांति को उचित अवसर प्राप्त हो।
    • व्यापार, वाणिज्य और वैश्वीकरण
      • ##asterisk##  अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में कई गुना वृद्धि हुई और जापान और जर्मनी नई औद्योगिक शक्तियों के रूप में उभरे। जापान की गुणवत्ता और जर्मनी की अभियांत्रिकी ने सबको पीछे छोड़ दिया  ##asterisk##  कंप्यूटरों और सूचना प्रौद्योगिकी के उदय ने संपत्ति-निर्माण की संपूर्ण संकल्पना को पुनर्परिभाषित करना शुरू किया  ##asterisk##  गैट, जो बाद में विश्व व्यापार संगठन के रूप में विकसित हुआ, ने एक ऐसी विश्व व्यापार व्यवस्था का स्वप्न देखा जो पारदर्शी नियमों और सभी के लिए लाभ के सिद्धांतों पर आधारित था, न कि केवल कुछ के लिए  ##asterisk##  1980 के बाद वित्तीय वैश्वीकरण की बाढ़ आई, जिसने संपूर्ण पहले, दूसरे और तीसरे विश्व की आर्थिक बहस को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया।
    • सांस्कृतिक वैश्वीकरण
      • ##asterisk##  अमेरिका के लंबे समय तक प्रमुख शक्ति बने रहने का कारण है उसकी निर्विवाद नर्म शक्ति (Soft Power) जो उसने विश्व भर में स्थापित की है। हम लोगों को अमेरिकी भोजन करते हुए, अमेरिकी शैली के कपडे इस्तेमाल करते हुए, अमेरिकी शब्दों और ग्राम्य-शब्द बोलते हुए, और किसी दिन अमेरिका पहुँचने और पूर्ण रूप से अमेरिकी वस्तुओं और सेवाओं (फेसबुक, गूगल, ट्विटर) में डूबे देख सकते हैं।  इसका सांस्कृतिक प्रतिक्रिया भी अनेक देशों में दिखती है - रोचक लगता है जब नाइके के जूते पहने, मैकडॉनल्ड्स में भोजन करते लोगों को अपने आई-फ़ोन पर फेसबुक में अमेरिका की बुराई करते देखते हैं!

कुछ समय के लिए लगभग ऐसा प्रतीत होने लगा था कि मानवता ने 'एक पहचान' के रूप में उभरने का निर्णय कर लिया है – एक ग्रह, एक लोग। हालांकि अब यह बिखरता हुआ प्रतीत हो रहा है।

[इस बोधि को अंग्रेजी में पढ़ें]

आगे बढ़ने से पहले, आज के राजनीतिक विमर्श को तराशती कुछ परिभाषाएं देखें।

राजनीतिक शब्दावली पर एक नज़र


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    • नव-उदारवाद (Neo-liberaslim)
      • वह विचारधारा जो आर्थिक उदारवाद और वैश्वीकरण का समर्थन करती है। नव-उदारवादियों के लिए, अबंध नीति (laissez-faire) ही सरकारों का सही व्यवहार है, और मुक्त व्यापार ही सही मंत्र। निजी क्षेत्र को सरकारी दखल से इतर श्रेष्ठ माना गया है।
    • अपरिवर्तनवाद (Conservatism)
      • जब उदारवाद और समाजवाद से तुलना करें, तो ये उनके उलटी विचारधारा है। ये वो दक्षिण-पंथी राजनीति हो सकती है जो व्यक्तिगत संपत्ति और निजी स्वामित्व को बढ़ावा दे (पूंजीवाद), और जो स्व-निर्भरता और व्यक्तिवाद पर बल दे।
    • दक्षिण पंथ (Right Wing)
      • जैसे चीज़ें चलती आई हैं, वैसे ही चलती रहे, ये सोच 
    • वाम पंथ (Left Wing)
      • कोई भी जो किसी राजनीतिक दल या राष्ट्र को तेज़ी से बदलना चाहे, भले ही बल-प्रयोग से। साम्यवाद वामपंथ होता है 
    • समाजवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद (Socialism, Communism, Capitalism)
      • समाजवाद एक कल्याणकारी राज्य का निर्माण कर, सामाजिक विषमताएं दूर करना चाहता है। साम्यवाद अभी, इसी-वक़्त समाजवाद चाहता है! पूँजीवाद एक मुक्त-उद्यमी भाव का समर्थन करता है, अक्सर लोकतंत्र के साथ, ताकि लोग अपने निजी स्वार्थ के अदृश्य हस्त से समाज कल्याण कर सकें  


 पृष्ठ ३ पर जारी 


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 पृष्ठ ३ (५ में से) 

दरारें उभरती हैं

आज की व्यवस्था में छह मूलभूत दरारें दिखाई देती हैं। पिछले सात दशकों में कठिन परिश्रम से निर्मित विश्व-व्यवस्था टूटती दिख रही है। उभरते देश स्थापितों को चुनौती दे रहे हैं, जो स्वयं या तो परिवर्तन का शिकार हैं या जिनके पास कोई उत्तर ही नहीं है।

हमारे विश्व को बदलते कारक

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    • धर्म और असंतोष से उत्पन्न आतंकवाद
      • 1919, और तत्पश्चात 1945 के बाद निर्मित विश्व व्यवस्था अनेक लोगों को स्वीकार्य नहीं थी। परस्पर जटिल संबंधों ने, जिनमें से कई छिपे हुए और प्रेरित हैं, विश्व भर में अनेक आतंकवादी संगठनों को पैदा किया है। उदाहरणार्थ, आइ.एस.आइ.एस. (Islamic State) को हमेशा लगा कि उन्हें उस गुप्त साइक्स-पिको समझौते (Sykes-Picot) ने धोखा दिया है जिसका उपयोग ब्रिटिशों और फ्रांसीसियों (कथित रूप से रूसी सहायता से) ने प्राचीन ओटोमन साम्राज्य को नष्ट करने के लिए किया। ओसामा बिन लादेन उन गैर-मुस्लिम अमेरिकी सैनिकों से नाराज था जो सऊदी अरब की पवित्र भूमि पर विचरण कर रहे थे। अफगान तालिबान को रीगन प्रशासन ने वित्तीय सहायता और समर्थन दिया ताकि सोवियत संघ को अपमानित किया जा सके और उसके कब्जे वाले अफगानिस्तान से उसे बाहर किया जा सके। आज की अनेक समस्याओं की उत्पत्ति इस प्रकार के तथ्यों में है जिसके बारे में अनेक लोगों को जानकारी नहीं है।
    • असमानताएँ और गरीबी 
      • मानव गरिमा और समानता की बुनियादी प्रतिज्ञा, जो 20 वीं सदी की अधिकांश संधियों और सम्मेलनों की आधारशिला प्रतीत होती थी, अब लगभग हवा में उड़ गई है। संपत्ति का संग्रह – जो अक्सर प्रौद्योगिकी के स्वामित्व द्वारा चालित है – अपने सर्वकालिक चरम पर है, जिसके परिणामस्वरूप सापेक्ष रूप से समृद्ध सामान्य अमेरिकियों को भी "हम 99 प्रतिशत हैं" के आन्दोलन (We are the 99%) के रूप में संगठित कर दिया है! आज की स्थिति में किसी भी देश के पास इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। गरीबी  को हल करने हेतु सुव्यवस्थित कार्यक्रम लाये गए हैं, जिसका नेतृत्व आमतौर पर विश्व बैंक ने किया है, परंतु तेजी से बढती जनसंख्या ने किसी भी दृश्य लाभ को क्षीण कर दिया है। भारत द्वारा नवंबर 2016 में उच्च मूल्य के नोटों के किये गए विमुद्रीकरण के बाद, बैंकों और एटीएम के बाहर अंतहीन कतारों में लगे गरीब तब तक इससे चिंतित नहीं हैं जब तक कि उन्हें यह लगता है कि मोदी ने समृद्ध लोगों को "घुटनों पर झुकने के लिए" मजबूर किया है।
    • राष्ट्रीय पहचान 
      • वैश्वीकरण की लगातार चलती यात्रा अमेरिका के ट्विन टावर पर 9 / 11 आक्रमण के बाद अचानक बिखरती प्रतीत हुई। अमेरिका आतंक के इन आकाओं का न्याय करने के प्रति कृत संकल्प था, जिससे एक विश्वव्यापी प्रक्रिया की शुरुआत हुई जिसके परिणाम आज तक दिखाई दे रहे हैं। हालांकि सतह के नीचे कई दशकों से असंतोष के अनेक कारक उबल रहे थे – असमानताएं, आधिकारिक भ्रष्टाचार, असंतुष्ट जनता, पहचान का लोप, भौतिकवाद द्वारा लाई गई अर्थहीनता, इत्यादि। आश्चर्यजनक रूप से सांस्कृतिक वैश्वीकरण का अग्रदूत अमेरिका भी गुस्से से उबलने लगा क्योंकि उनकी नौकरियां 'अल्प-वेतन लेने वाले' भारतीय श्रमिकों और 'मुद्रा में हेराफेरी करने वाले' चीनी निर्यातकों ने छीन ली थीं। चीन की शिक्षा व्यवस्था में राष्ट्रीयता की भावना को वैसे भी हवा दी जाती रही है, और अब कम्युनिस्ट पार्टी उसकी अनियंत्रित प्रकृति से जूझ रही है।
    • धनी चीन का उदय 
      • आधुनिकीकरण के प्रणेता देंग शाओ पिंग ने 1979  के बाद चीन में जो किया उसका पूर्ण प्रभाव अब दिखाई दे रहा है। देंग, जो पेशे से एक इंजीनियर थे, ने देखा कि माओ की बधुविध क्रांतियों - 1949 से 1976 में उनकी मृत्यु तक - के पागलपन ने चीन को आर्थिक और औद्योगिक रूप से तबाह कर दिया था। देंग ने तीन बातें सुनिश्चित कीं (क) विज्ञान, प्रौद्योगिकी और इंजीनियरिंग पर ठोस फोकस, (ख) विदेशी पूँजी को चीन में लाना ताकि कारखानों का निर्माण किया जा सके, और (ग) विनिर्माण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार और उसके बाद उत्पादन का निर्यात करना। इस असाधारण राष्ट्र-निर्माण परियोजना ने –जिसे लोकतंत्र की चाह रखने वाले युवाओं को चीनी सेना के टैंकों द्वारा थ्यानांमेन चौक में कुचलने के मूल्य पर किया गया था –  चीन को निर्विवाद रूप से समृद्ध और प्रभावशाली बना दिया। आज के उसके कई खरब डॉलर मूल्य के विदेशी विनिमय भंडार उसे एक ऐसा वर्चस्व प्रदान करते हैं जो किसी अन्य देश को उपलब्ध नहीं है। अंतहीन पूँजी प्रवाह के बल पर शी जिनपिंग एशिया के बड़े भाग में बनने वाली एक पट्टा एक सड़क (One Belt One Road) नामक दुस्साहसी योजना बना सकते हैं, जिसमें पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) जैसे अनेक अवैध रूप से कब्ज़ा किये हुए क्षेत्र भी शामिल हैं। और चीन का निशाना केवल एशिया ही नहीं है, बल्कि संपूर्ण अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में चीन के पदचिन्ह उभर रहे हैं।
    • विरासती साम्राज्यों के बीच बदलती जनसांख्यिकी
      • 1980, 1990 के दशकों और उसके बाद भी संपूर्ण अरब विश्व में परिवर्तन का दौर जारी रहा। वे युवा जिन्हें सत्ता और शासक परिवारों से कोई प्रीति नहीं थी, ऐसे लोगों की जनसंख्या इन देशों में सर्वाधिक थी। वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि कुछ परिवार उनपर अनेक पीढ़ियों से शासन कर रहे थे, और शीघ्र लोकतांत्रिक परिवर्तन की कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। उनके इस गुस्से और निराशा का परिणाम थी  रक्तरंजित अरब क्रांति (Arab Spring), जो दिसंबर 2010 से प्रारम्भ हुई और जिसने संपूर्ण अरब विश्व को तहस-नहस कर दिया है। तुनिशिया के अलावा, जहाँ से इसका आरंभ हुआ, किसी भी अन्य देश में लोकतंत्र स्थापित नहीं हो पाया।
    • वैश्वीकरण के विरूद्ध बगावत 
      • जहाँ कभी भूमंडलीकरण को विश्व की बीमारियों का इलाज समझा जाता था, उसीने आज विकसित देशों में काफी असंतोष फैला दिया है। लोगों ने अपनी आखों के सामने नौकरियों को समाप्त होते देखा है, और सस्ते सामान से अपने बाज़ारों को पटते हुए भी। राजनीतिक दलों ने इस उबलते आक्रोश की प्रतिक्रियास्वरूप अपरिवर्तनवादी नीतियों को आगे बढ़ाया है, जो अक्सर दक्षिणपंथी हो जाती हैं, और डॉनल्ड ट्रम्प का उदय, ब्रिटेन का अप्रत्याशित ब्रेक्सिट और फ्रांस तथा जर्मनी में बढ़ते अतिरेकी दक्षिणपंथ इस रुझान के उदाहरण हैं।

आज के विवर्तनिकी परिवर्तन


यह चर्चा हमें उस स्थान पर ले आई है जहाँ से हमनें शुरुआत की थी – आज हमारे इर्द-गिर्द हो रहे प्रमुख परिवर्तन। ऐतिहासिक कारणों को देखने के बाद अब हम आसानी से इन कारणों का विश्लेषण कर सकते हैं। जिसे कुछ लोग "एक नया राष्ट्रवाद" कहते हैं, उसे "प्राचीन का उदय" या "परा-राष्ट्रवाद का पतन" भी कहा जा सकता है ! आज शक्तिशाली देश भी एक सहयोगी वैश्विक व्यवस्था के निर्माण और संधारण के बजाय एक दूसरे को पछाड़ने (Dog eat Dog) वाले विश्व में शामिल होने के लिए प्रतिबद्ध प्रतीत होते हैं। अचानक से नीतियों का उलट जाना और नए निवेश निर्णय हो जाना अब असाधारण बात नहीं रह गई है। अधिक निर्यात करने की कुछ देशों की ज़रूरतों के बीच, एक अपरिवर्तनवादी राजनीतिक आधार उभर रहा है। चीन पाकिस्तान के बीच से रास्ता बना कर सीधे अरब सागर में जा पंहुचा है, ताकि हिन्द महासागर में भारत का दबदबा कम किया जा सके।

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    • एक जटिल विश्व को समझाता सरल समीकरण
      • विश्व की अप्रत्याशित जटिलता = बढ़ती असमताओं का परिणाम + राष्ट्रवाद का उदय + ऐतिहासिक अन्याय पर क्रोध + राज्य में धर्म का दखल + वैश्वीकरण के विरूद्ध बगावत

1 डॉनल्ड ट्रम्प का उदय


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    • अनेक अमेरिकी बढती असमानता और प्रौद्योगिकी-प्रेरित विश्व में तेजी से कम होते रोजगार के अवसरों के कारण खासे नाराज हैं, साथ ही वे अपनी दयनीय अवस्था के लिए अति-प्रतिस्पर्धी चीनियों और अति-प्रतिभाशाली (और अक्सर न्यून-लागत) भारतीय प्रतिस्पर्धियों को जिम्मेदार मानते हैं। प्रौद्योगिकी के केंद्र तटवर्ती अमेरिका में संपत्ति के भारी संकेन्द्रण (सिलिकॉन घाटी जीडीपी उत्पादन की दृष्टि से विश्व भर में शीर्ष 5 में आती है!) के कारण मध्य और औद्योगिक अमेरिका में नाराजी है। वे विश्व व्यापार संगठन (WTO) को उनके रोजगार छीनने के लिए किया गया षड्यंत्र मानते हैं। सभी जगह हमारी सेना को क्यों भेजा जाता है जबकि कोई भी इसके लिए हमें कभी धन्यवाद भी नहीं देता?
    • स्थापित व्यवस्था (हिलेरी क्लिंटन) पर भरोसा क्यों किया जाए जबकि उसने हमें इतना धोखा दिया है? प्रवासियों (immigrants) को अमेरिका में प्रवेश की अनुमति ही क्यों दी जाये (मुस्लिम और अन्य) जबकि वे यहाँ आकर केवल उपद्रव करते हैं? चीन से आयात क्यों किया जाए जबकि वे मुद्रा में हेराफेरी करके हमें धोखा देते हैं? ओबामा के अनेक प्रकल्प अब धूल चाटते दिखेंगे, जिसमें ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप भी है। इस नव-राष्ट्रवाद के एक भयानक रूप में कुछ सभाओं में हिटलर के नाज़ी सेल्यूट भी देखे गए। इस समय स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी भी अपने स्थान पर कंपकंपा रही होगी!

[इस बोधि को अंग्रेजी में पढ़ें]

 पृष्ठ  पर जारी 


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 पृष्ठ  (५ में से) 

2 भारत में विमुद्रीकरण


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    • 8 नवंबर से ही, किसी प्रधानमंत्री द्वारा लिए गए अब तक के सबसे नाटकीय राजनीतिक-आर्थिक निर्णय के परिणामों का अनुभव भारतीय लोग कर रहे हैं। एक ही झटके में अब तक की नकद-चालित अर्थव्यवस्था, भारत, को नकदविहीन और डिजिटल बनाने का प्रकल्प शुरू किया गया।भारत एक विशाल अर्थव्यवस्था है, जिसकी गणना लगातार वैश्विक दृष्टि से शीर्ष देशों में की जाती रही है। अर्थव्यवस्था का विशाल आकर इस तथ्य को छिपा देता है कि नागरिकों का बड़ा प्रतिशत न्यून प्रति व्यक्ति आय के कारण संघर्ष और अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करता है। यह अक्सर स्वीकार किया जाता है कि सकारात्मक राष्ट्रीय चरित्र का भारत में पूर्ण अभाव है। इसका कारण क्या है? व्यवस्था के हर स्तम्भ द्वारा दिखाई गयी उदासीनता और स्वार्थपरता। 
    • अनेक दशकों से चल रहा शासकीय और निजी क्षेत्र का भ्रष्टाचार, लालची नौकरशाही और स्वयं की सेवा में विश्वास रखने वाला राजनीतिक वर्ग, संविधान में अंतर्निहित संस्थाओं का पतन, कमजोर कार्य संस्कृति, कमजोर व्यापार सुगमता, एक असंगत शिक्षा व्यवस्था और परिवर्तनकारी राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव। विशाल परिवर्तन की हवा भारत में अब शायद बहने लगी है और अगली कुछ तिमाहियों के दौरान मानवजाति द्वारा अब तक का सबसे बड़ा आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन अनुभूत किया जाने वाला है। प्रधानमंत्री मोदी ने बेनामी संपत्ति धारकों के विरुद्ध व्यापक कार्रवाई करने का वादा किया है, जो राष्ट्रीय पुनर्निर्माण परियोजना का दूसरा चरण होगा। 


विमुद्रीकरण पर अवश्य पढ़ें   [बोधि 1]  [बोधि 2]  [बोधि 3]   [प्रधानमंत्री के नाम एक पत्र]

रूस की नवीकृत मुखरता 


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    • अनेक वर्ष पूर्व व्लादिमीर पुतिन ने बोरिस येल्तसिन से सत्ता के सूत्र अपने हाथ में लिए। स्वयं येल्तसिन ने पतन हुए सोवियत संघ की सत्ता संभाली थी, और उन्होंने बाजार-उन्मुख लोकतंत्र में परिवर्तित करने का प्रयास किया था। पुतिन के शासन में मुखरता का अनुभव किया गया है, जो विश्व को उस ऊंचाई का स्मरण कराता है जिसे किसी समय सोवियत संघ ने छुआ था। अनेक ज्वलंत घटनाओं में यूक्रेन में विद्रोहियों को रूस का समर्थन, और सीरिया में बशर असद के शासन को समर्थन साफ़ नज़र आते हैं। अमेरिका की नाराज़गी के बावजूद रूस ने लगातार यूरोपीय संघ के तुर्की के प्रति सहयोजन का विरोध किया है, और संभवतः वह तुर्की को (जो एरदोगन के नेतृत्व में है) अमेरिकी-यूरोपीय संघ के प्रभाव से मुक्त करा रुसी प्रभाव में लाने में सफल भी हो जाएगा! रूस सदा से ही यूरोप में नाटो की मौजूदगी से खफा रहा है। नाटो की वेबसाइट कहती है "नाटो और रूस हमेशा से असहमत रहे हैं; किन्तु हमारा गठबंधन कोई झगड़ा नहीं चाहता और रूस के लिये हम खतरा नहीं हैं"
    • मानव द्वारा अब तक बनाए गए सबसे विशाल परमाणु अस्त्र (आईसीबीएम पर स्थापित) के अनावरण के हाल के समाचार ने किसीको भी आश्चर्यचकित नहीं किया। पुतिन के शी जिनपिंग वाले चीन की ओर हाल के झुकाव ने भारत के लिए खतरे की घंटी बजा दी है, और ब्रिक्स घोषणा-पत्र (नवंबर 2016) में आतंकवाद से संबंधित किसी घोषणा को शामिल किये जाने के मामले में मिली असफलता ने और अधिक आश्चर्यचकित किया है। तेल की कीमतों में हुई अप्रत्याशित गिरावट ने रुसी राजस्व और घरेलू कार्यकुशलता को काफी क्षति पहुंचाई है, और संभवतः उसकी हाल की रणनीतिक चालों का उत्तर इन्हीं में छिपा हुआ है। 


चीन के सर्वव्यापी पदचिन्ह


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    • 2012 में जब से शी जिनपिंग ने पीआरसी की सत्ता संभाली है तभी से परिवर्तन की आक्रामक हवाएं बहने लगी थीं। उन्होंने संपूर्ण चीन में भ्रष्टाचार पर भारी आक्रमण किया, और इस प्रक्रिया में उन्होंने न तो राजनीतिज्ञों को बख्शा है और न ही नौकरशाहों को। चीन ने दक्षिण चीन सागर के बड़े क्षेत्र पर कब्जे का दावा किया है, जिसका परिणाम फिलीपींस द्वारा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (UNCLOS) में लाये गए दावे के विपरीत परिणाम में हुआ है, इसके कारण भी सामुद्रिक स्थिति अधिक जटिल हो गई है। अति.महत्वाकांक्षी एक-पट्टा-एक-सड़क पहल (OBOR) चीन को एशिया के विशाल क्षेत्र में ले जा रही है, और चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के अवैध रूप से पाक के कब्जे वाले कश्मीर से गुजरने के कारण भारत खासा नाराज है। अब चीन ने अपने नौसैनिक जहाज ग्वादर बंदरगाह पर भी तैनात कर दिए हैं !
    • वह समय दूर नहीं दिखता जब पाकिस्तान चीन का एक उपनिवेश बन जाएगा, ऐसा अनेक विश्लेषकों को लग रहा है (इनमें कुछ पाकिस्तानी सांसद भी शामिल हैं)। यदि सीपैक के कारण पाकिस्तान समृद्ध होता है तो यह भारत के लिए अच्छी खबर हो सकती है। चीन की आर्थिक ताकत में वृद्धि जारी है, और उसके  खरबों डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार सरकारी कंपनियों को अप्रत्याशित लाभ प्रदान कर रहे हैं जो विश्व स्तर पर परिसंपत्तियां अधिग्रहित कर रहे हैं। वास्तव में, अब चीन भारतीय कंपनियों में एक बड़ा निवेशक है (पेटीएम इसका एक उदाहरण है!)। राष्ट्रवादी चीन में जापान विरोधी भावनाएं अपने चरम पर हैं और ट्रम्प के आने से पतन की कगार पर पहुंचा ट्रांस प्रशांत सहयोग समझौता (TPP, ओबामा की योजना जिसने चीन को बाहर रखा और जापान को शामिल किया) चीन को खुश कर चुका है ।

[इस बोधि को अंग्रेजी में पढ़ें]

मध्य पूर्व और अरब विश्व विखंडन की कगार पर


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    • यदि कभी मानव इतिहास में सबसे दुखद अध्याय लिखा गया तो मोंगोलों के खूनी हमलों को छोड़कर - जो संपूर्ण शहरों को खत्म करते जाते थे - किसी समय के समृद्ध अरब विश्व का पतन और मध्य पूर्व की अराजक स्थिति प्रमुखता से दिखाई देंगे। तेल ने कुछ देशों - सऊदी अरब, छोटे से कतर, यू.ए.ई. इत्यादि - को अति समृद्ध बनाया है। हालांकि शासक परिवारों का सामान्य दृष्टिकोण अभी भी पारंपरिक बना हुआ है, जिसमें महिलाओं के मूलभूत अधिकारों की अनदेखी की जा रही है, और इस आधुनिक विश्व में भी इन देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अभाव से ही नजर आती है। अमेरिका ने कुछ मित्र देशों की मदद से अपनी मौजूदगी मध्य-पूर्व में बनाये रखी है। किन्तु वो पूर्णतः उस परिवर्तन को अनदेखा कर गया जो भीतर से सुलग रहा था। अरब क्रांति (Arab Spring) का परिणाम तुनिशिया, मिस्र, लीबिया और यमन में तख्तापलट में हुआ है; बहरीन और सीरिया में रक्तरंजित नागरिक उठाव हुआ जो अब तक समाप्त नहीं हुआ है; 
    • विरोधों की श्रृंखला अल्जीरिया, इराक, जॉर्डन, कुवैत, मोरक्को और ओमन में हुई हैं; और लेबनान, मॉरिटानिया, सऊदी अरब, सूडान और पश्चिमी सहारा में छिटपुट विरोध हुए हैं। इसमें किसीको भी बख्शा नहीं गया! शासक परिवारों ने युवाओं की आकाँक्षाओं और वैश्वीकरणसे पटे  विश्व में आधुनिक परिवर्तन की इच्छा को समझने में गलती की। सभी को इसकी कीमत चुकानी पड़ी क्योंकि मध्य-पूर्व एक बार फिर से वैश्विक ताकतों के प्रतिस्पर्धा के मैदान में परिवर्तित हो रहा है। तेल की कीमतों में गिरावट ने स्थितियों को अधिक जटिल बना दिया है। इसका परिणाम स्पष्ट था - प्रवासियों का विशाल जत्था यूरोप की ओर बढ़ा, जिसके कारण राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदल गया, जिसमें चरम दक्षिणपंथी दलों को स्थान बनाने का अवसर मिल गया है जैसा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कभी भी देखा नहीं गया था।  

 पृष्ठ पर जारी 


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 पृष्ठ (५ में से)

एशिया की भू-राजनीति  - आतंक से ओबीओआर तक 


एशिया के समस्त भू-राजनीतिक समीकरण तेज़ी से बदले हैं। एक जटिल कहानी का सारांश ये रहा। एक बड़े विषय पर पकड़ बनाने हेतु बेहद उम्दा!


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    •  अमेरिका, चीन, रूस, पाकिस्तान, तालिबान और भारत - एक जटिल कहानी
      • विश्लेषक कहते हैं कि अमेरिका ने ९/११ आतंकी हमलों (ट्विन टावर, २००१) के बाद आतंकवाद पर एक वैश्विक सहमति बनवाई थी, जो अब विखंडित होने लगी है। २००१ में, सुरक्षा परिषद ने संकल्प १३७१ से घोषणा की थी कि आतंकी गुटों (अल-क़ायदा, तालिबान, और अन्य) से लड़ा जायेगा। धीरे-धीरे, समय बीतने के साथ, तालिबान अनेक प्रतिबंधों से खुद को मुक्त कराने में सफल रहा है। उस वक़्त, रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भी अमेरिका के साथ एकजुटता दिखाई थी, और उन्हें मध्य एशिया में अपने बेस बनाने की "अनुमति" दी थी, एवं पूर्ण रूप से अफ़ग़ानिस्तान में भी घुसने दिया था। अब वो मित्रता समाप्त हो चुकी है – रूस अब नाटो, यूरोपीय संघ और अमेरिका तक पर सवाल उठाता है। रूस की २०१६ अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में 'अवैध' लिप्तता – जो साइबर हमलों से हुए – पर भी सवाल उठ रहे हैं। रूस अन्य तरीकों से भी बदला है – वस्तु व्यापार के कारण चीन से निकटता, और पाकिस्तान से बढ़ते रिश्ते (शायद चीनी दबाव में)। अफ़ग़ानिस्तान को लेकर मॉस्को में चीन, रूस और पाकिस्तान की अनेक मुलाकातों में प्रयास हुआ है कि काबुल और तालिबान में ज़्यादा बातचीत हो। चीन स्थायित्व चाहता है चूंकि उसका महत्वकांक्षी वन बेल्ट वन रोड (One Belt One Road) प्रोजेक्ट – जो चीन के वर्तमान नेता शी जिनपिंग ने पूरे एशिया में नवीन व्यापार और संयोजकता बनाने हेतु लाया है, और जो सड़क मार्ग व समुद्री रास्तों से अफ्रीका, मध्य पूर्व और यूरोप तक भी जायेगा! अतः, वो चाहता है कि तालिबान उसपर हमला न करे। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने २०११ में अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की क्रमशः  वापसी की घोषणा की थी, और बाद में अमल भी किया। इससे समीकरण बदले। ओ.बी.ओ.आर. और अमेरिकी वापसी के बाद चीन अफ़ग़ानिस्तान पर दबदबा बनाना चाहता है। १९८० के दशक से ही चीन तालिबान के साथ (और अन्य इस्लामिक गुटों से भी) बातचीत करता रहा है, जबसे इन गुटों ने अफ़ग़ान भूमि पर सोवियत कब्जे का विरोध करना प्रारम्भ किया था। चीनी हथियार अफ़ग़ान मुजाहिदीन को दिए गए थे जो सोवियत से लड़ रहे थे (१९७० से ही चीन और सोवियत अपने अलग रास्ते चल दिए थे)। अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान शासन के दौरान, चीन उस सरकार से रिश्ता चाहता था क्योंकि उसे वादा चाहिए था कि वे "पूर्वी तुर्केस्तान इस्लामी आंदोलन" (East Turkestan Islamic Movement - ETIM) को सहयोग नहीं करेंगे, और न ही किसी और अतिवादी इस्लामी गुट को जो अफ़ग़ानिस्तान में चीन को निशाना बनाये। अफ़ग़ानिस्तान में चीनी राजदूत, लु शूलिन ने अफ़ग़ान नेता मुल्ला उमर से भेंट भी की थी, किन्तु कुछ हुआ नहीं और चीन ने तालिबान से खुद को दूर कर अफ़ग़ानिस्तान से नाता तोड़ लिया। चीन की चिंता ये है कि उसके शिनजिआंग क्षेत्र को अतिवादी आंदोलन चपेट में न ले ले, जहाँ वीघर मुस्लिम अल्पसंख्यक समूह रहते हैं। शिनजिआंग अफ़ग़ानिस्तान से आतंक हेतु भेद्य है। मध्य १९९० के दशक से २००१ तक, पूर्वी तुर्केस्तान इस्लामी आंदोलन के प्रशिक्षण केंद्र अफ़ग़ानिस्तान में थे। अफ़ग़ान-शिनजिआंग सुरक्षा गठजोड़ को चीन तालिबान, अल क़ाएदा, और अंततः इस्लामिक राज्य के वीघर संबंधों से जोड़कर देखता है। अफ़ग़ान तालिबान प्रतिनिधिमंडल २०१५ और २०१६ में चीन गए थे। मई २०१५ में भी, चीन ने तालिबान और अफ़ग़ान सरकार की एक गुप्त सभा उरुमकी (शिनजिआंग की राजधानी) में बुलवाई थी। तालिबान ने शायद वादा कर दिया होगा कि वे ओ.बी.ओ.आर. प्रोजेक्ट्स पर "हमला नहीं करेंगे"।  भारत के लिए, कुल मिला कर ये सब होना एक अच्छी खबर नहीं है। चीन ने दक्षिण एशिया को भारत के विरूद्ध एक ज़ीरो-सम-गेम (Zero Sum Game) बना दिया है, और अक्सर जाने-अनजाने में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ धकेला है। चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) जिसका एक लक्ष्य है पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को एक प्रमुख और बेहद छोटा व्यापारिक रास्ता बनाना, वहां बहुत गतिविधि हुई है। भारत के लिए ये भी बुरी खबर है कि चीन और रूस दोनों ने ही भारत को सीमापार से हो रहे आतंकवाद पर कड़े व्यक्तव्य जारी नहीं करने दिए हैं - न तो ब्रिक्स सम्मलेन में (गोवा, अक्टूबर २०१६) और न ही हार्ट ऑफ़ एशिया सम्मलेन में (अमृतसर, दिसम्बर २०१६)। और अंततः, भारत का प्रस्ताव कि एक "अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर विस्तृत सम्मलेन" बने, आगे नहीं बढ़ पा रहा है। तो इन सब कारकों की वजह से, और सीमाओं पर तथा अरुणाचल के मुद्दे पर चीन आक्रामकता को देखते हुए, भारत को मजबूरी में अपनी पूर्वी सीमाओं को सुरक्षित करने हेतु सामरिक सैन्य आस्तियों में भारी निवेश करने पड़ रहे हैं. [वो मुद्दे हमने इस बोधि में समझाए हैं]  स्पष्ट है कि वैश्विक पहेली आकर बदल रही है। किन्तु परिवर्तन की बयार स्वयं अचानक से दिशा बदल सकती है, और इस खेल में कुछ भी सनातन नहीं है।  


जैसा हमने देखा, विश्व राजनीति में बेहद हलचल भरा दौर है। परिवर्तन सर पर है, और हर दिन अपने साथ नए समीकरण लाता है। केवल आशा की जा सकती है कि शीर्ष पर बने रहने की प्रतिस्पर्धा में, गलत कदम न उठा लिए जाएं। स्वयं को फ़्रांसिसी क्रांति का ध्येय वाक्य स्मरण करने का अच्छा समय है - स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व!


An eye for an eye only ends up making the whole world blind  - Mahatma Gandhi


नीचे दी गई कमैंट्स थ्रेड में अपने विचार ज़रूर लिखियेगा (आप आसानी से हिंदी में भी लिख सकते हैं)। इससे हमें ये प्रोत्साहन मिलता है कि हमारी मेहनत आपके काम आ रही है, और इस बोधि में मूल्य संवर्धन भी होता रहता है।

[बोधि प्रश्न हल करें ##question-circle##]




इस बोधि को हम सतत अद्यतन करते रहेंगे। पढ़ते रहिये। और कमेंट्स थ्रेड में अपने विचार अवश्य बताएं

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    • बोधि कडियां (गहन अध्ययन हेतु; सावधान: कुछ लिंक्स बाहरी हैं, कुछ बड़े पीडीएफ)
      • ##chevron-right## चीन की समुद्री कानून से परेशानी यहाँ  ##chevron-right## चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा यहाँ और यहाँ  ##chevron-right## वैश्विक असमता पर ऑक्सफेम रिपोर्ट यहाँ  ##chevron-right## नाटो साइट - रूस से रिश्ते यहाँ  ##chevron-right## रूस ने नाटो को परमाणु चेतावनी दी यहाँ  ##chevron-right## डॉनल्ड ट्रम्प का उदय यहाँ  ##chevron-right## एशिया का उभरता महा-संघर्ष यहाँ   ##refresh##  अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर चल अद्यतन पढ़ें यहाँ



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Corruption and transparency,1,Elections,1,Indian and world media,1,Legislature,1,News media,1,Political bodies,1,Political parties and leaders,1,अधोसंरचना,3,आतंकवाद,7,इतिहास,3,ऊर्जा,1,कला संस्कृति साहित्य,2,कृषि,1,क्षेत्रीय राजनीति,2,धर्म,2,पर्यावरण पारिस्थितिकी तंत्र एवं जलवायु परिवर्तन,1,भारतीय अर्थव्यवस्था,9,भारतीय राजनीति,13,मनोरंजन क्रीडा एवं खेल,1,रक्षा एवं सेना,1,विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी,6,विश्व अर्थव्यवस्था,4,विश्व राजनीति,9,व्यक्ति एवं व्यक्तित्व,5,शासन एवं संस्थाएं,5,शिक्षा,1,संधियां एवं प्रोटोकॉल,3,संयुक्त राष्ट्र संघ,1,संविधान एवं विधि,4,सामाजिक मुद्दे,5,सामान्य एवं विविध,2,
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Hindi Bodhi Booster: विश्व राजनीति के विवर्तनिक परिवर्तन : विहंगम दृष्टि
विश्व राजनीति के विवर्तनिक परिवर्तन : विहंगम दृष्टि
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