दक्षेस का पतन विभिन्न शक्ति समूहों के बीच परस्पर व्यापार-व्यवसाय और अनुबंधों के लिए संधियाँ और समझौते प्रमुख साधन हैं। आज हमें विश्व...
दक्षेस का पतन
विभिन्न शक्ति समूहों के बीच परस्पर व्यापार-व्यवसाय और अनुबंधों के लिए संधियाँ और समझौते प्रमुख साधन हैं। आज हमें विश्व में ऐसी अनेक संधियों की श्रृंखला दिखाई देती है जिनमें व्यापार, वाणिज्य, रक्षा, सांस्कृतिक संबंध और सैन्य जुडाव से संबंधित संधियाँ शामिल हैं। वैश्विक राजनीतिक मामलों में क्षेत्रीय राजनीति की अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। किसी क्षेत्र के किसी भी देश द्वारा लिए गए निर्णयों का समग्र विश्व भावना और स्थायित्व पर प्रभाव पड़ता है।
जैसा कहा गया है, विश्व भर में अनेक क्षेत्रीय अंतर.शासन सहयोग संगठन हैं। इनमें से कुछ हैं अफ़्रीकी महासंघ (AU), यूरोपीय संघ (EU), केरेबियाई समुदाय (कैरीकॉम CariCom), अरब लीग, दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का महासंघ (आसियान ASEAN), दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस SAARC) और दक्षिण अमेरिकी देशों का महासंघ (USAN)। ये सभी संगठन संबंधित क्षेत्र के सदस्य देशों के बीच आर्थिक विकास, शांति, स्थिरता, और सहयोग विकसित करने का प्रयास करते हैं।
[इस बोधि को अंग्रेजी में पढ़ें]
दक्षेस की स्थापना दक्षिण एशियाई क्षेत्र में शांति, स्थिरता और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए बांग्लादेश के राष्ट्रपति श्री ज़िया-उर-रहमान (राष्ट्रपति 1977-1981) की सतत पहल और कोशिश के बाद, वर्ष 1985 में ढाका में हुई थी। दक्षेस में वर्तमान में आठ दक्षिण एशियाई सदस्य देश शामिल हैं। इनमें अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, मालदीव्स, पाकिस्तान और श्रीलंका शामिल हैं। भारत और पाकिस्तान दक्षेस के दो अपेक्षाकृत बड़े सदस्य देश हैं।
दुर्भाग्य से, दक्षेस के दो बड़े सदस्य देशों, भारत और पाकिस्तान, के बीच चले आ रहे निरंतर संघर्ष के कारण दक्षेस को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। इसके परिणामस्वरूप, 30 वर्ष पूर्व स्थापित हुआ यह संगठन अपने घोषित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाया है। पाकिस्तान मानता है कि भारत अपने बड़े भौगोलिक आकार के कारण संगठन पर वर्चस्व बनाने का और बड़े भाई की भूमिका निभाने का प्रयास करता है, जिसे मानने के लिए वह तैयार नहीं है। दूसरी ओर, भारत ने लगातार इस बात को दोहराया है कि सीमा पार से लगातार होने वाली घुसपैठ के कारण उसे भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
दक्षेस का 19 वां सम्मेलन नवंबर 2016 में पाकिस्तान में होने वाला था। परंतु हाल ही में उडी (Uri) में भारतीय सेना के ठिकाने पर हुए आतंकी हमले के कारण भारत ने दक्षेस सम्मेलन में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया। दक्षेस के चार्टर के अनुसार, यदि एक सदस्य देश भी सम्मेलन में हिस्सा लेने से इंकार करता है तो सम्मेलन आयोजित नहीं हो सकता है। इस प्रकार, दक्षेस का 19वां अधिवेशन रद्द हो गया! भारत की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि तीन अन्य सदस्य देशों - अफगानिस्तान, बांग्लादेश और भूटान - ने भी भारत के रुख का समर्थन किया और सम्मेलन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। यहाँ तक कि वर्तमान अध्यक्ष नेपाल सरकार की प्रेस विज्ञप्ति में भी कहा गया कि सम्मेलन के आयोजन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए अधिक अनुकूल वातावरण का निर्माण किया जाना आवश्यक है।
जैसा कि जाहिर है, संधियों और समझौतों हेतु एक निश्चित समझ और रिश्तों की सहजता व मधुरता आवश्यक है।
उडी हमले के बाद से ही भारत कूटनीतिक तौर पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए प्रयासरत है। दक्षेस सम्मेलन का रद्द होना इस दिशा में एक सफल कदम माना जा सकता है। हालांकि दक्षेस की राजनीतिक और आर्थिक प्रासंगिकता को देखते हुए इस कदम का पाकिस्तान पर कोई विशेष आर्थिक प्रभाव नहीं पड़ेगा, परंतु इसका क्षेत्रीय राजनीतिक और नैतिक प्रभाव होना तय है।
[Read this Bodhi in English]
हार्ट ऑफ़ एशिया (इस्तांबुल प्रक्रिया)
हार्ट ऑफ़ एशिया - इस्तांबुल प्रक्रिया का गठन २ नवम्बर २०११ को इस्तांबुल तुर्की में किया गया था। ये अफ़ग़ानिस्तान पर केंद्रित एक परिणाम-लक्षित क्षेत्रीय-सहयोग प्रयास है, चूंकि एक सुरक्षित और स्थिर अफ़ग़ानिस्तान इस संपूर्ण क्षेत्र हेतु आवश्यक है। इसके १४ सदस्य देश और १७ सहयोगी देश हैं जो साथ मिलकर आतंकवाद और नशीले पदार्थों के व्यापार से लड़ने की रणनीतियां बनाते हैं, ताकि शांति और समृद्धि बने। दिसंबर २०१६ की छठी मंत्री-स्तरीय वार्ता (अमृतसर, भारत) अमृतसर घोषणा से संपन्न हुई जिसमें आतंकवाद और उसके प्रायोजकों से लड़ने का संकल्प लिया गया।
एशिया की भू-राजनीति - आतंक से ओबीओआर तक
एशिया के समस्त भू-राजनीतिक समीकरण तेज़ी से बदले हैं। एक जटिल कहानी का सारांश ये रहा। एक बड़े विषय पर पकड़ बनाने हेतु बेहद उम्दा!
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- अमेरिका, चीन, रूस, पाकिस्तान, तालिबान और भारत - एक जटिल कहानी
- विश्लेषक कहते हैं कि अमेरिका ने ९/११ आतंकी हमलों (ट्विन टावर, २००१) के बाद आतंकवाद पर एक वैश्विक सहमति बनवाई थी, जो अब विखंडित होने लगी है। २००१ में, सुरक्षा परिषद ने संकल्प १३७१ से घोषणा की थी कि आतंकी गुटों (अल-क़ायदा, तालिबान, और अन्य) से लड़ा जायेगा। धीरे-धीरे, समय बीतने के साथ, तालिबान अनेक प्रतिबंधों से खुद को मुक्त कराने में सफल रहा है। उस वक़्त, रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भी अमेरिका के साथ एकजुटता दिखाई थी, और उन्हें मध्य एशिया में अपने बेस बनाने की "अनुमति" दी थी, एवं पूर्ण रूप से अफ़ग़ानिस्तान में भी घुसने दिया था। अब वो मित्रता समाप्त हो चुकी है – रूस अब नाटो, यूरोपीय संघ और अमेरिका तक पर सवाल उठाता है। रूस की २०१६ अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में 'अवैध' लिप्तता – जो साइबर हमलों से हुए – पर भी सवाल उठ रहे हैं। रूस अन्य तरीकों से भी बदला है – वस्तु व्यापार के कारण चीन से निकटता, और पाकिस्तान से बढ़ते रिश्ते (शायद चीनी दबाव में)। अफ़ग़ानिस्तान को लेकर मॉस्को में चीन, रूस और पाकिस्तान की अनेक मुलाकातों में प्रयास हुआ है कि काबुल और तालिबान में ज़्यादा बातचीत हो। चीन स्थायित्व चाहता है चूंकि उसका महत्वकांक्षी वन बेल्ट वन रोड (One Belt One Road) प्रोजेक्ट – जो चीन के वर्तमान नेता शी जिनपिंग ने पूरे एशिया में नवीन व्यापार और संयोजकता बनाने हेतु लाया है, और जो सड़क मार्ग व समुद्री रास्तों से अफ्रीका, मध्य पूर्व और यूरोप तक भी जायेगा! अतः, वो चाहता है कि तालिबान उसपर हमला न करे। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने २०११ में अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की क्रमशः वापसी की घोषणा की थी, और बाद में अमल भी किया। इससे समीकरण बदले। ओ.बी.ओ.आर. और अमेरिकी वापसी के बाद चीन अफ़ग़ानिस्तान पर दबदबा बनाना चाहता है। १९८० के दशक से ही चीन तालिबान के साथ (और अन्य इस्लामिक गुटों से भी) बातचीत करता रहा है, जबसे इन गुटों ने अफ़ग़ान भूमि पर सोवियत कब्जे का विरोध करना प्रारम्भ किया था। चीनी हथियार अफ़ग़ान मुजाहिदीन को दिए गए थे जो सोवियत से लड़ रहे थे (१९७० से ही चीन और सोवियत अपने अलग रास्ते चल दिए थे)। अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान शासन के दौरान, चीन उस सरकार से रिश्ता चाहता था क्योंकि उसे वादा चाहिए था कि वे "पूर्वी तुर्केस्तान इस्लामी आंदोलन" (East Turkestan Islamic Movement - ETIM) को सहयोग नहीं करेंगे, और न ही किसी और अतिवादी इस्लामी गुट को जो अफ़ग़ानिस्तान में चीन को निशाना बनाये। अफ़ग़ानिस्तान में चीनी राजदूत, लु शूलिन ने अफ़ग़ान नेता मुल्ला उमर से भेंट भी की थी, किन्तु कुछ हुआ नहीं और चीन ने तालिबान से खुद को दूर कर अफ़ग़ानिस्तान से नाता तोड़ लिया। चीन की चिंता ये है कि उसके शिनजिआंग क्षेत्र को अतिवादी आंदोलन चपेट में न ले ले, जहाँ वीघर मुस्लिम अल्पसंख्यक समूह रहते हैं। शिनजिआंग अफ़ग़ानिस्तान से आतंक हेतु भेद्य है। मध्य १९९० के दशक से २००१ तक, पूर्वी तुर्केस्तान इस्लामी आंदोलन के प्रशिक्षण केंद्र अफ़ग़ानिस्तान में थे। अफ़ग़ान-शिनजिआंग सुरक्षा गठजोड़ को चीन तालिबान, अल क़ाएदा, और अंततः इस्लामिक राज्य के वीघर संबंधों से जोड़कर देखता है। अफ़ग़ान तालिबान प्रतिनिधिमंडल २०१५ और २०१६ में चीन गए थे। मई २०१५ में भी, चीन ने तालिबान और अफ़ग़ान सरकार की एक गुप्त सभा उरुमकी (शिनजिआंग की राजधानी) में बुलवाई थी। तालिबान ने शायद वादा कर दिया होगा कि वे ओ.बी.ओ.आर. प्रोजेक्ट्स पर "हमला नहीं करेंगे"। भारत के लिए, कुल मिला कर ये सब होना एक अच्छी खबर नहीं है। चीन ने दक्षिण एशिया को भारत के विरूद्ध एक ज़ीरो-सम-गेम (Zero Sum Game) बना दिया है, और अक्सर जाने-अनजाने में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ धकेला है। चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) जिसका एक लक्ष्य है पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को एक प्रमुख और बेहद छोटा व्यापारिक रास्ता बनाना, वहां बहुत गतिविधि हुई है। भारत के लिए ये भी बुरी खबर है कि चीन और रूस दोनों ने ही भारत को सीमापार से हो रहे आतंकवाद पर कड़े व्यक्तव्य जारी नहीं करने दिए हैं - न तो ब्रिक्स सम्मलेन में (गोवा, अक्टूबर २०१६) और न ही हार्ट ऑफ़ एशिया सम्मलेन में (अमृतसर, दिसम्बर २०१६)। और अंततः, भारत का प्रस्ताव कि एक "अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर विस्तृत सम्मलेन" बने, आगे नहीं बढ़ पा रहा है। तो इन सब कारकों की वजह से, और सीमाओं पर तथा अरुणाचल के मुद्दे पर चीन आक्रामकता को देखते हुए, भारत को मजबूरी में अपनी पूर्वी सीमाओं को सुरक्षित करने हेतु सामरिक सैन्य आस्तियों में भारी निवेश करने पड़ रहे हैं. [वो मुद्दे हमने इस बोधि में समझाए हैं] स्पष्ट है कि वैश्विक पहेली आकर बदल रही है। किन्तु परिवर्तन की बयार स्वयं अचानक से दिशा बदल सकती है, और इस खेल में कुछ भी सनातन नहीं है।
आतंकवाद के विभिन्न पहलूओं पर ये रहा एक व्याख्यान। सीखें। अधिक गंभीर विद्यार्थियों के लिए, यहाँ क्लिक कर बोधि बूस्टर प्रीमियम की जानकारी लें, और पंजीयन कराएं।
आज मानवता के समक्ष शांति और समृद्धि का ही एकमात्र रास्ता है। दुर्भाग्यवश, आतंकी हमलों द्वारा दिए गए घाव, पिछले दशकों के दौरान किये गए अच्छे कामों को नष्ट कर रहे हैं। हमें आशा है कि देश अच्छे और बुरे आतंकवाद के बीच अंतर करने की भूल को समझेंगे और एक नस्ल के रूप में एक दूसरे के साथ आयेंगे - जो है मानवतावादी नस्ल।
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