विश्व राजनीति और भारत की सामरिक चुनौतियाँ

बिसात पर बदलती स्थितियां विश्व राजनीतिक परिदृश्य अत्यंत जटिल, गतिमान और चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। नए गठजोड़ किये जा रहे हैं और पुराने ...

बिसात पर बदलती स्थितियां


विश्व राजनीतिक परिदृश्य अत्यंत जटिल, गतिमान और चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। नए गठजोड़ किये जा रहे हैं और पुराने भंग हो रहे हैं। आज की विश्व राजनीति में न तो स्थाई मित्र हैं और न ही स्थाई शत्रु। यह स्थिति, आतंकवाद के मुद्दे पर भारत द्वारा किये गए अथक प्रयासों के बावजूद चीन और रूस द्वारा अख्तियार किये गए रुख से स्पष्ट होती है।

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विश्व मंच पर शक्ति के समीकरण नित नए रूप लेते जा रहे हैं। अब अमेरिका निर्विवाद एकमात्र महाशक्ति नहीं रह गया है। उसकी शक्ति और दृष्टिकोण को विभिन्न तरीकों से विभिन्न उभरती शक्तियों द्वारा चुनौती दी जा रही है - चीन अपनी औद्योगिक ताकत को अपने हिसाब से आगे बढ़ा रहा है; सुरक्षा चिंताओं का हवाला देकर संभवतः जापान सैन्यीकरण की योजना बना रहा है; यूरोपीय संघ का अमेरिकी पद्धतियों पर विश्वास नहीं है विशेष रूप से बौद्धिक संपदा अधिकार, आईपीआर, और प्रौद्योगिकी कंपनियों के मामले में, जैसा कि अमेरिकी दिग्गज कंपनियों पर लगाए गए गैर-प्रतिस्पर्धी दंड (Anti-Trust penalties) से स्पष्ट है; रूस अपने स्वयं के शक्ति समीकरण बना रहा है, इत्यादि। बीते दशकों के दौरान कुछ देशों के साथ भारत के घनिष्ठ संबंध थे, परंतु अब उसे अपनी विदेश नीति की अधिकांश आवश्यकताओं को फिर से जांचने की ज़रुरत आ गयी है। 


[इस बोधि को अंग्रेजी में पढ़ें]
 
पिछला संपूर्ण दशक भारत की सामरिक स्थिति की दृष्टि से घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों ही मोर्चों पर, काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। एक ओर, भारत ने सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दुनिया में अपना वर्चस्व स्थापित किया है, और कड़ी मेहनत से "ब्रांड भारत" (Brand India) स्थापित किया है, वहीं दूसरी ओर हम अपनी तेजी से बढती जनसंख्या को उत्पादक रोजगार प्रदान करने की गति बनाए रखने में असफल हुए हैं।

इन अनेक चुनौतियों के बावजूद, हमारा लोकतांत्रिक ढांचा विरोधी स्वरों को समायोजित करने में, और एक समावेशक समाज के निर्माण की दृष्टि से काफी सहायक साबित हुआ है। परंतु आज हम एक दोराहे पर खड़े हैं जहाँ हमारे लिए आतंरिक और बाहरी, दोनों मोर्चों पर, ठोस और कड़े निर्णय लेना अपरिहार्य हो गया है।

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हमारे लिए आवश्यक है कि हम अपनी आतंरिक समृद्धि और स्थिरता, और बाहरी सुरक्षा और सामरिक स्थिति पर ध्यान दें। आज भारत के लिए सबसे जटिल और सबसे बड़ी चुनौती है चीनी जनवादी गणराज्य (पीआरसी)। एक भ्रमित करने वाली सामरिक स्थिति में, चीन हमें एक ही समय अपना मित्र, शत्रु और प्राणघातक शत्रु प्रतीत होता है!

चीन से उत्पन्न अनिश्चितता


वर्ष 1949 से चीन द्वारा अपनाया गया कठोर रुख - जिसे माओ ने अपनाया था - वर्ष 1976 में सुधारवादी नेता देंग झाओपिंग के चीनी परिदृश्य पर उभरने के साथ परिवर्तित हो गया। देंग ने मुख्य रूप से तीन चीजों पर ध्यान केंद्रित किया - (1) अधिकाधिक विदेशी पूँजी चीन में लाना, (2) सेना और हथियारों की तेज गति से वृद्धि, और (3) प्रौद्योगिकी क्षमता का विकास। दूसरी ओर, भारत ने अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं, नागरिकों के मौलिक अधिकारों और संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता को बनाए रखने का प्रयास किया। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे सुधारों की गति तुलनात्मक दृष्टि से काफी धीमी रही। दोनों देशों की आर्थिक क्षमताओं के बीच बहुत चौड़ी खाई निर्माण होने का यह एक प्रमुख कारण था। दुर्भाग्य से हमारे अपने विश्लेषकों ने अपने विभिन्न आर्थिक विश्लेषणों में, अक्सर इस लोकतंत्र-बोनस को नजरंदाज किया है!

अकादमिक दृष्टि से देखें, तो गुजरी हुई शताब्दियों में झांकते ही वैश्विक अर्थव्यवस्था का इतिहास एक बिलकुल अलग तस्वीर पेश करता है। भारत और चीन सिरमौर दिखाई पड़ते हैं! आधुनिक पीढ़ियों को ये शायद हजम न हो! दरअसल, प्राचीन भारतीयों ने (सिंधु-ओं!) ने तो एक संपूर्ण शहरी केंद्रों से परिपूर्ण सभ्यता बना ली थी जो ३००० ईसा पूर्व में १००० से अधिक केंद्रों पर बसी हुई थी!

[Read this Bodhi in English]

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. एंगस मैडिसन के नवाचारी शोध ने ये दिखा दिया था।

Angus Maddison
 
[ This picture taken from The Economist, here ]

आज चीन अपने वर्षों से एकत्रित किये हुए विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग सामान्य रूप से विश्व पर और विशेष रूप से क्षेत्रीय देशों पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए कर रहा है। चीन-पाकिस्तान-आर्थिक-गलियारा (सीपीईसी CPEC) और हाल ही में बांग्लादेश को दी गई 40 अरब डॉलर की वित्तीय सहायता इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। हमें भय है कि हमारे मित्र देश पाला बदल सकते हैं। अतः हमें अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है।

अब समय आ गया है कि भारत को अपनी आतंरिक और बाहरी नीति पर पुनर्विचार करना होगा। अब हमें पहले केवल अपने बारे में, अपनी अर्थव्यवस्था के बारे में और अपनी सुरक्षा के बारे में सोचना होगा। हमें दोनों मोर्चों पर अपनी नीतियों में आवश्यक सुधार और परिवर्तन करने होंगे। चीनी उत्पादों पर अधिकाधिक निर्भरता पर भी हमें पुनर्विचार करना होगा। हमें अपनी स्वयं की विनिर्माण और प्रौद्योगिकी क्षमताओं का विकास करना होगा। निश्चित रूप से यह आसान नहीं होगा, परंतु हमारे सामने यही एकमात्र रास्ता है।

सुरक्षा के मोर्चे पर, हमें अपनी पुरानी नीति को पुनः परिभाषित करना होगा। अपनी आतंरिक और बाहरी सुरक्षा स्थिति सुदृढ़ करनी होगी, सुरक्षा उपकरणों के लिए स्वदेशी निर्मित उपकरणों पर निर्भरता बढानी होगी। आशा है कि आने वाले दशकों में हमारी सामरिक स्थिति इतनी सुदृढ़ होगी कि कोई भी हमारी ओर आँख उठाने की हिमाकत भी नहीं कर पाएगा।

[ अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर चल अद्यतन पढ़ें]

तिब्बत कोण


भारत ने अनेक मोर्चों पर महत्वाकांक्षी चीनियों की ओर से लगातार टकराव का सामना किया है। २०१४ से ही, मोदी सरकार ने चीन से रिश्ते सुधारने का प्रयास किया है, किन्तु चीन ने भारत की तीनों बड़ी इच्छाओं को मानने से इनकार किया है - (१) भारत पाकिस्तान को "आतंक का प्रमुख प्रायोजक (Mother-ship of terrorism)" बताकर विश्व में अलग-थलग करना चाहता है, (२) भारत की अपनी "महा-शक्ति प्रतिष्ठा" हासिल करने के प्रयासों में चीन मदद करे, और
राह न रोके, और (३) चीन स्वयं को हिन्द  क्षेत्र में (IOR) आगे न बढ़ाये और भारत के प्रभाव क्षेत्र का सम्मान करे। किन्तु इन सभी मुद्दों पर चीन की असंवेदनशीलता देखते हुए, भारत वीघर, फालुन गोंग और तिब्बती पृथकतावादियों को भारत निमंत्रित करता रहा है। २०१७ में, सरकार अब चीन के विरूद्ध "तिब्बत कार्ड"  तैयार कर सकती है चीनी दलाई लामा को किसी भी प्रकार की वैश्विक मान्यता मिलने से चिढ जाते हैं, और भारत अब उन्हें एक बोझ नहीं वरन एक आस्ति (asset) मान कर चलना चाहता है। दिसंबर २०१६ में, चीनियों ने भारत की कड़ी आलोचना की कि क्यों दलाई लामा को राष्ट्रपति भवन दिल्ली में एक आयोजन में बुलाया गया, और साथ ही उन्होंने मंगोलिया के साथ अपनी सीमा भी सील कर दीं, चूंकि नवम्बर में चार दिन की यात्रा पर दलाई लामा वहां गए थे। सीमा बंद होने से मंगोलिया के वस्तु निर्यात बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। इस तरह के तुनकमिजाज व्यवहार से, ये असंभव नहीं है कि चीनी अचानक किसी दिन कुछ कर बैठें। यह सुनिश्चित करने के लिए कि हम बिना तैयारी के न रहें, सरकारें काफी लंबे समय से तैयारी करती रही हैं।  [भारत की सैन्य तैयारी पर पढ़ें, यहाँ]

एशिया की भू-राजनीति  - आतंक से ओबीओआर तक 


एशिया के समस्त भू-राजनीतिक समीकरण तेज़ी से बदले हैं। एक जटिल कहानी का सारांश ये रहा। एक बड़े विषय पर पकड़ बनाने हेतु बेहद उम्दा!


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    •  अमेरिका, चीन, रूस, पाकिस्तान, तालिबान और भारत - एक जटिल कहानी
      • विश्लेषक कहते हैं कि अमेरिका ने ९/११ आतंकी हमलों (ट्विन टावर, २००१) के बाद आतंकवाद पर एक वैश्विक सहमति बनवाई थी, जो अब विखंडित होने लगी है। २००१ में, सुरक्षा परिषद ने संकल्प १३७१ से घोषणा की थी कि आतंकी गुटों (अल-क़ायदा, तालिबान, और अन्य) से लड़ा जायेगा। धीरे-धीरे, समय बीतने के साथ, तालिबान अनेक प्रतिबंधों से खुद को मुक्त कराने में सफल रहा है। उस वक़्त, रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भी अमेरिका के साथ एकजुटता दिखाई थी, और उन्हें मध्य एशिया में अपने बेस बनाने की "अनुमति" दी थी, एवं पूर्ण रूप से अफ़ग़ानिस्तान में भी घुसने दिया था। अब वो मित्रता समाप्त हो चुकी है – रूस अब नाटो, यूरोपीय संघ और अमेरिका तक पर सवाल उठाता है। रूस की २०१६ अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में 'अवैध' लिप्तता – जो साइबर हमलों से हुए – पर भी सवाल उठ रहे हैं। रूस अन्य तरीकों से भी बदला है – वस्तु व्यापार के कारण चीन से निकटता, और पाकिस्तान से बढ़ते रिश्ते (शायद चीनी दबाव में)। अफ़ग़ानिस्तान को लेकर मॉस्को में चीन, रूस और पाकिस्तान की अनेक मुलाकातों में प्रयास हुआ है कि काबुल और तालिबान में ज़्यादा बातचीत हो। चीन स्थायित्व चाहता है चूंकि उसका महत्वकांक्षी वन बेल्ट वन रोड (One Belt One Road) प्रोजेक्ट – जो चीन के वर्तमान नेता शी जिनपिंग ने पूरे एशिया में नवीन व्यापार और संयोजकता बनाने हेतु लाया है, और जो सड़क मार्ग व समुद्री रास्तों से अफ्रीका, मध्य पूर्व और यूरोप तक भी जायेगा! अतः, वो चाहता है कि तालिबान उसपर हमला न करे। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने २०११ में अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की क्रमशः  वापसी की घोषणा की थी, और बाद में अमल भी किया। इससे समीकरण बदले। ओ.बी.ओ.आर. और अमेरिकी वापसी के बाद चीन अफ़ग़ानिस्तान पर दबदबा बनाना चाहता है। १९८० के दशक से ही चीन तालिबान के साथ (और अन्य इस्लामिक गुटों से भी) बातचीत करता रहा है, जबसे इन गुटों ने अफ़ग़ान भूमि पर सोवियत कब्जे का विरोध करना प्रारम्भ किया था। चीनी हथियार अफ़ग़ान मुजाहिदीन को दिए गए थे जो सोवियत से लड़ रहे थे (१९७० से ही चीन और सोवियत अपने अलग रास्ते चल दिए थे)। अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान शासन के दौरान, चीन उस सरकार से रिश्ता चाहता था क्योंकि उसे वादा चाहिए था कि वे "पूर्वी तुर्केस्तान इस्लामी आंदोलन" (East Turkestan Islamic Movement - ETIM) को सहयोग नहीं करेंगे, और न ही किसी और अतिवादी इस्लामी गुट को जो अफ़ग़ानिस्तान में चीन को निशाना बनाये। अफ़ग़ानिस्तान में चीनी राजदूत, लु शूलिन ने अफ़ग़ान नेता मुल्ला उमर से भेंट भी की थी, किन्तु कुछ हुआ नहीं और चीन ने तालिबान से खुद को दूर कर अफ़ग़ानिस्तान से नाता तोड़ लिया। चीन की चिंता ये है कि उसके शिनजिआंग क्षेत्र को अतिवादी आंदोलन चपेट में न ले ले, जहाँ वीघर मुस्लिम अल्पसंख्यक समूह रहते हैं। शिनजिआंग अफ़ग़ानिस्तान से आतंक हेतु भेद्य है। मध्य १९९० के दशक से २००१ तक, पूर्वी तुर्केस्तान इस्लामी आंदोलन के प्रशिक्षण केंद्र अफ़ग़ानिस्तान में थे। अफ़ग़ान-शिनजिआंग सुरक्षा गठजोड़ को चीन तालिबान, अल क़ाएदा, और अंततः इस्लामिक राज्य के वीघर संबंधों से जोड़कर देखता है। अफ़ग़ान तालिबान प्रतिनिधिमंडल २०१५ और २०१६ में चीन गए थे। मई २०१५ में भी, चीन ने तालिबान और अफ़ग़ान सरकार की एक गुप्त सभा उरुमकी (शिनजिआंग की राजधानी) में बुलवाई थी। तालिबान ने शायद वादा कर दिया होगा कि वे ओ.बी.ओ.आर. प्रोजेक्ट्स पर "हमला नहीं करेंगे"।  भारत के लिए, कुल मिला कर ये सब होना एक अच्छी खबर नहीं है। चीन ने दक्षिण एशिया को भारत के विरूद्ध एक ज़ीरो-सम-गेम (Zero Sum Game) बना दिया है, और अक्सर जाने-अनजाने में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ धकेला है। चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) जिसका एक लक्ष्य है पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को एक प्रमुख और बेहद छोटा व्यापारिक रास्ता बनाना, वहां बहुत गतिविधि हुई है। भारत के लिए ये भी बुरी खबर है कि चीन और रूस दोनों ने ही भारत को सीमापार से हो रहे आतंकवाद पर कड़े व्यक्तव्य जारी नहीं करने दिए हैं - न तो ब्रिक्स सम्मलेन में (गोवा, अक्टूबर २०१६) और न ही हार्ट ऑफ़ एशिया सम्मलेन में (अमृतसर, दिसम्बर २०१६)। और अंततः, भारत का प्रस्ताव कि एक "अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर विस्तृत सम्मलेन" बने, आगे नहीं बढ़ पा रहा है। तो इन सब कारकों की वजह से, और सीमाओं पर तथा अरुणाचल के मुद्दे पर चीन आक्रामकता को देखते हुए, भारत को मजबूरी में अपनी पूर्वी सीमाओं को सुरक्षित करने हेतु सामरिक सैन्य आस्तियों में भारी निवेश करने पड़ रहे हैं. [वो मुद्दे हमने इस बोधि में समझाए हैं]  स्पष्ट है कि वैश्विक पहेली आकर बदल रही है। किन्तु परिवर्तन की बयार स्वयं अचानक से दिशा बदल सकती है, और इस खेल में कुछ भी सनातन नहीं है।  


ट्रम्प तय कर रहे हैं नई भाषा


अमेरिका में डॉनल्ड ट्रम्प सरकार के आने से चार त्वरित परिवर्तन होंगे : (१) ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP - प्रशांत पार व्यापारिक साझेदारी), जो एक प्रस्तावित विशाल व्यापार गुट बनना था और जिसमें भारत नहीं होता, अब मृत है, (२) नाटो (NATO) बहुत कमज़ोर पड़ सकता है, (३) चीन व्यापार और सामरिक मामलों में रुकावटें महसूस कर सकता है, और (४) भारत या पाकिस्तान में किसी को अचानक लाभ हो सकता है (तय नहीं है) अतः, आने वाला समय उथल-पुथल भरा है. हमने इस मुद्दे पर बोधि समाचार साइट पर अनेक विश्लेषण प्रस्तुत किये है, जो आप यहाँ देख सकते हैं



मोदी सिद्धांत (भारतीय विदेशी मामले)


अगस्त 2016 में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत की विदेश नीति को ‘‘इंडिया फर्स्ट’’ का सारांश रूप दिया। ये भारत के अपने सामरिक हितों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और अपने घर में अधिक समृद्धि और विकास की तलाश दर्शाता है। मोदी सिद्धांत का नेतृत्व एक दर्शन से होता है और उसे वास्तविक कार्यों से लागू किया जाता है। विभिन्न कूटनीतिक आदान-प्रदानों को प्रमुख घरेलू कार्यक्रमों जैसे कि मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया या स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट्स को आगे बढ़ाने हेतु किया जा रहा है। घरेलू और कूटनीतिक लक्ष्यों का आपस में ताल-मेल मोदी सिद्धांत का प्रमुख पहलू है। विदेश मंत्री के अनुसार, ऐसा करने से न केवल हमारे प्रमुख कार्यक्रमों को अधिक तकनीक, पूंजी और बेहतर कार्यप्रणालियां मिल रही हैं, बल्कि विदेशी प्रत्यक्ष पूंजी निवेश भी बढ़ रहा है।

सरकार के उद्घाटन दिवस पर पड़ोसी देशों के नेताओं को आमंत्रित करने के पहले कूटनीतिक कदम के साथ, बाद में इसे विस्तारित कर ‘‘पड़ोसी प्रथम’’ नीति में तब्दील किया गया जिसमें आपसी सहयोग, संयोजकता और अधिक नागरिक संपर्क शामिल हैं। लगभग सभी पड़ोसी देशों में स्वयं यात्रा कर, प्रधानमंत्री मोदी ने क्षेत्रीय समृद्धि का बड़ा संदेश दिया है। वैश्विक व्यवस्था अब न केवल बहु-ध्रुवीय हो चुकी है, किंतु रिश्तों में बहुत ढिलाई भी आती जा रही है और वे देश जो पहले औपचारिक रूप से मित्र थे वे भी नई संभावनाऐं तलाश रहे हैं। हालांकि विश्व अधिक वैश्विकृत हो चुका है, विशिष्ट क्षेत्रीय गतिकिया भी उत्पन्न हो चुकी है। एक कट्टर राष्ट्रवादी ट्रंप प्रशासन का आगमन एक नवीन उदाहरण है। इसके फलस्वरूप, प्रभावी कूटनीति हेतु हमें एक साथ प्रतिस्पर्धी शक्तियों के साथ संतुलन जमाना होगा। अब यह प्रक्रिया आपसी अंतरों का प्रबंधन करने और सहमति पूर्ण क्षेत्रों का विस्तार करने की हो गई है। अत: अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम के प्रति शांत बैठे रहना अब एक विकल्प नहीं रह गया है। अतः, गुटनिरपेक्ष आंदोलन का वैचारिक बोझ त्याग कर भारत अब प्रमुख शक्तियों के साथ बात करने लगा है।

एक भारत जो एक वृहद वैश्विक भूमिका हेतु प्रयासरत है उसे एक विस्तारित कूटनीतिक पदचिन्ह बनाना होगा, जो कि अधिक दूतावासों और एक विस्तारित विदेश सेवा से होगा, या निकट भविश्य में अन्य नेतृत्वों के साथ अधिक गहरी संलग्नता से। बड़ी तेज़ गति से विश्व भर में भ्रमण करने के कैलेंडर की वजह से भारत की छवि पर नाटकीय प्रभाव पड़ा है, क्योंकि पहले से मौजूद अनेक कमियों को भरा गया। द्वि-पक्षीय और बहु-पक्षीय दोनों तरह से अनेक घटनाऐं हुई हैं। भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन 17 देशों से बढ़कर संपूर्ण 54 तक पहुंच गया है। पहली बार प्रशांत द्वीपीय देशों पर भारत का शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया, स्वयं भारत में भी। ब्रिक्स सम्मेलन (गोवा) और हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन (अमृतसर) से इस संलग्नता को आगे बढ़ाया गया। एक ऐसे युग में जहां विश्व के मुद्दों पर सतत् बात चलती रहती है, मानवता का एक-छठवां हिस्सा दर्शाने वाले भारतीय उन चुनौतियों से नहीं बच सकते जो पृथ्वी के भविष्य से जुड़ी हैं। जलवायु परिवर्तन पर पेरिस अनुबंध में भारत ने एक प्रमुख भूमिका निभाई, और अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन बनाने में भी। सीमा पर आंतकवाद के नासूर से निपटने हेतु, भारत ने बिना रूके अंतर्राष्ट्रीय आंतकवाद पर व्यापक सम्मेलन तुरंत संपन्न कराने पर बल दिया, हालांकि बड़ी शक्तियों ने प्रतिरोध किया। 

भारतीय प्रवासी अनेक देशों में बेहद प्रभावशील हैं, हमारा देश जितना सेवाओं के व्यापार और प्रेक्षण से उतना कमाता है जितना वस्तु व्यापार से। मोदी सरकार ने इस योगदान की प्रशंसा करने में नये कदम उठाये है, जिससे उनकी प्रतिष्ठा और उनके हितों का बेहतर संवर्धन होगा। सरकार का प्रयास रहा है कि व्यवस्था की सोच उनके प्रति बदले - फिर वो पासपोर्टो को त्वरित रूप से जारी करना हो, विदेश में दूतावासों से बेहतर प्रतिक्रिया की बात हो या यमन, ईराक, लिबिया या दक्षिण सूडान से बचाव अभियानों की बात हो। विदेशों में सफल भारतीय कार्यवाहीयों के अनेक उदाहरण हैं जैसेकि अफगानिस्तान में संसद भवन और सलमा बांध का सफल निर्माण, श्रीलंका में डुरीअप्पा स्टेडियम, बांग्लादेश के साथ समेकित पेट्रापोल चेकपाईंट या नेपाल में ट्रॉमा केन्द्र। एशिया के समस्त भू-राजनीतिक समीकरण तेज़ी से बदले हैं। एक जटिल कहानी का सारांश ये रहा। एक बड़े विषय पर पकड़ बनाने हेतु बेहद उम्दा!




जियो और जीने दो सदा से ही भारत का सिद्धांत रहा है, किन्तु अन्यों के द्वारा भी इसी भावना का प्रदर्शन आवश्यक है

[बोधि प्रश्न हल करें ##question-circle##  ]


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बोधि श्रुति (हिंदी) यहाँ उपलब्ध है 


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