एक पूर्ण स्वतंत्र न्यायपालिका भारतीय संवैधानिक स्वतंत्रताओं का आधार है। तनाव उभर रहे हैं, चूंकि मूल विवाद अनसुलझे हैं।
शक्तियों का पृथक्करण और न्यायिक समीक्षा
भारत के संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत का पालन किया गया है । हालांकि, करीब से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति के रूप में कार्यकारी और संसद पर एक ऊपरी हाथ दिया गया है। वे संवैधानिक प्रावधान जो कानूनों की न्यायिक समीक्षा की गारंटी प्रदान करते हैं वे अनुच्छेद 13, 32 131-136, 143, 145, 226, 246, 251, 254 और 372 में शामिल हैं।
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यहाँ ये जानना भी ज़रूरी है कि भारतीय न्यायपालिका विश्व की सबसे बडी न्याय व्यवस्थाओं में से एक है जहाँ देश के विभिन्न न्यायालयों में लाखों की संख्या में न्यायिक मामले लंबित हैं और सैकडों की संख्या में न्यायाधीशों के पद रिक्त पडे हैं। इस स्थिति में यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका तुरंत और सौहार्दपूर्ण ढंग से इस गतिरोध को हल नहीं करते तो सबसे अधिक नुकसान न्याय चाहने वालों का ही होगा।
कानूनी विशेषज्ञों और न्यायिक टीकाकारों की राय है कि इस गतिरोध को शीघ्र ही समाप्त कर देना चाहिए। इस समस्या के समाधान के लिए दोनों पक्षों को इसे अधिकार या प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाते हुए एक कदम पीछे आने को तैयार होना चाहिए। उच्चतम न्यायालय को कॉलेजियम व्यवस्था की वर्तमान स्थिति की समीक्षा की संभावनाओं पर विचार के लिए सहमति प्रदान करना चाहिए यदि इससे यह सुनिश्चित होता है कि यह व्यवस्था अधिक खुली और पारदर्शी बनती है। साथ ही, न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका से बाहर के व्यक्तियों के प्रवेश को लेकर न्यायपालिका को आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
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घटनाओं की पूर्ण श्रृंखला
- १९७० के दशक में, उच्चतम न्यायालय ने "संविधान का मूल ढांचा" सिद्धांत बनाया था और उन क्षेत्रों को रेखांकित किया था जहाँ संसद और सरकार (राजनीतिक कार्यकारी) बिलकुल दखल नहीं दे सकते थे।
- "तीन न्यायाधीश मामले" (Three Judges Cases) मामलों की एक श्रृंखला थी - (१) एस.पी.गुप्ता बनाम भारत संघ - १९८१ (इसे न्यायाधीश स्थानांतरण मामला भी कहते हैं), (२) उच्चतम न्यायालय एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड बनाम भारत संघ - १९९३, (३) १९९८ का विशेष सन्दर्भ - जिसके दौरान उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक स्वतंत्रता का सिद्धान्त बनाया।
- उच्चतम न्यायालय ने एक "कॉलेजियम व्यवस्था" बनाई जिसका प्रयोग १९९३ के दूसरे मामले से हो रहा है।
- उपरोक्त वर्णित १९९८ का तीसरा मामला एक कानूनी मामला नहीं होते हुए उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई एक राय थी जो कॉलेजियम व्यवस्था पर तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के.आर.नारायणन द्वारा उनके संवैधानिक अधिकारों के तहत उठाये एक कानूनी प्रश्न के जवाब में दी गयी।
- इसका कुल अर्थ ये हुआ कि राज्य की कोई अन्य शाखा (विधायिका या कार्यकारी) न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में दखल न दे सकेगी।
- भारत के विधि आयोग (Law Commission of India) ने अपनी २३०वीं रिपोर्ट (अगस्त २००९) में न्यायिक सुधारों के तरीके सुझाये थे [ उस रिपोर्ट को आप बोधि संसाधन पृष्ठ से यहाँ डाउनलोड कर सकते हैं ]
- २०१२ की तत्कालीन सरकार ने संसद में कहा था कि "स्थिति को सुधारने हेतु, २०१२ के न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक में मानक प्रतावित किये जा रहे हैं, जिसे लोक सभा ने हाल ही में पारित किया है" (PIB release here)
- जनवरी २०१३ में, उच्चतम न्यायालय ने गैर-सरकारी संगठन सुराज ट्रस्ट इंडिया की जनहित याचिका ख़ारिज की जिसमें कॉलेजियम व्यवस्था को चुनौती दी गयी थी।
- जुलाई २०१३ में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम ने नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था बदलने के प्रयासों की आलोचना की।
- लोक सभा ने (१३ अगस्त २०१४ को) और राज्य सभा ने (१४ अगस्त २०१४ को) राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक २०१४ पारित किया जिसने नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था को ख़ारिज कर दिया। भारत के राष्ट्रपति ने ३१ दिसंबर २०१४ को मंजूरी दी।
- इसे नाम बदलकर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम २०१४ कहा गया।
- १६ अक्टूबर २०१५ को, उच्चतम न्यायालय ने इस संविधान संशोधन को, और अधिनियम को, अवैध करार देते हुए ख़ारिज किया, और कॉलेजियम व्यवस्था पुनः स्थापित की जिससे उच्च न्यायपालिका में "न्यायाधीश ही न्यायाधीशों को नियुक्त करते हैं"। तर्क था कि "राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) न्यायपालिका की स्वायत्तता में दखल देते हुए संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ कर रहा है।"
- किन्तु उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था सुधारने हेतु जनता से सुझाव मांगे।
- अनेकों सुझावों में साफ़ इशारा था कि उच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीश अमर्यादित व्यवहार कर रहे हैं, विशेषकर "चाचा जज, पिता जज, भाई जज" की कहानी, जिससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है।
- उच्चतम न्यायालय ने सरकार (कार्यकारी) से कहा कि एक प्रक्रिया पत्र (Memorandum of Procedure - MoP) तैयार करे ताकि कॉलेजियम में इस्तेमाल होने वाली प्रक्रिया निर्देशित की जा सके। सरकार ने स्वयं के लिए एक छोटा अधिकार चाहा कि वो कोई नाम अस्वीकार कर सके यदि "राष्ट्रीय हित" का मामला बने तो।
- उच्चतम न्यायालय ने उस पत्र को ख़ारिज कर दिया। ऐसा दो बार हुआ।
- २८ अक्टूबर २०१६ को उच्चतम न्यायालय ने गुस्सा करते हुए सरकार को याद दिलाया कि प्रक्रिया पत्र (Memorandum of Procedure) बनाने में बनाने में देरी स्वीकार्य नहीं है, और सबसे वरिष्ठ नौकरशाहों को कोर्ट में बुला लिया जायेगा यदि जल्दी से नतीजे नहीं आये तो। सरकार ने जवाब में कहा कि ताज़ा प्रक्रिया पत्र (MoP) का ड्राफ्ट सरकार ने उच्चतम न्यायालय को ३ अगस्त को ही भेज दिया था किन्तु उसे कोई प्रतिक्रिया ही नहीं मिली।
- सरकार ने नवम्बर २०१६ के दूसरे सप्ताह में उच्चतम न्यायालय को बताया कि ७७ नामों में से - जो कॉलेजियम ने उच्च न्यायालयों में नियुक्ति के लिए भेजे थे- ३४ नाम अनुमोदित किये जा चुके हैं। बचे हुए ४३ नाम कॉलेजियम को वापस भेज दिए गए हैं।
- १८ नवम्बर २०१६ को उच्चतम न्यायालय ने सरकार को चेताया कि इस ४३ नामों की अस्वीकृति को वह मानने से इनकार करता है और पुनः ४३ नाम पुनर्विचार हेतु सरकार को भेज रहा है।
- संविधान दिवस के दिन (२६ नवम्बर को - पूर्व में विधि दिवस) जब एक समारोह में कानून मंत्री और मुख्य न्यायाधीश एक साथ आये, तो दोनों ने एक दूसरे को "लक्ष्मण रेखा" याद दिलाई!
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्ति हेतु कॉलेजियम ने १९ नाम सुझाये थे। सरकार ने ये नाम वापस भेज दिए थे। तब उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम ने ये नाम पुनः वापस भेजे थे ('reiterated')। और ये माना जा रहा था कि उनकी नियुक्ति अब हो जाएगी। किन्तु ०२ जनवरी २०१७ को उच्चतम न्यायलय में चिंगारियां बरसीं जब भारत के महान्यायवादी (Attorney General) जो सरकार की ओर से पेश हुए थे, उन्होंने बताया कि लौटाए गए नामों को फिर से लौटा दिया गया है क्योंकि कुछ प्रक्रियागत कमियां छूट गयी हैं। प्रक्रिया पत्र (Memorandum of Procedure) अभी भी अपूर्ण ही है।
- वरिष्ठ अधिवक्ता यतिन ओझा और राम जेठमलानी की ओर से दाखिल एक याचिका में आरोप लगाया गया कि कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित स्थानांतरण भी अभी अटके पड़े हैं। ओझा ने एक विशेष उच्च न्यायलय का उदाहरण देते हुए कहा कि "वहां की स्थिति बेहद ख़राब है" क्योंकि जो न्यायाधीश सरकार के निकट माने जाते हैं उनका स्थानांतरण हो ही नहीं रहा है!
- न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवा-निवृत्त होने के बाद, न्यायमूर्ति जे.एस.खेहर ०४ जनवरी २०१७ को मुख्य न्यायाधीश बने
कुछ प्रमुख प्रकाशनों में, विश्लेषकों ने उस मंथर गति की आलोचना की है जिससे उच्चतम न्यायालय उन मामलों की सुनवाई कर रहा है जिनमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है। वे याचिकाएं जिनमें आधार को अनिवार्य बनाने को चुनौती दी गयी है (निजता के अधिकार का उल्लंघन) २०१३ से अंतिम सुनवाई हेतु लंबित हैं, और नोटबंदी से सम्बंधित याचिकाएं भी (मौलिक स्वतंत्रताओं का हनन) बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही हैं। आलोचकों का कहना है कि जबतक ऐसे मामलों की त्वरित सुनवाई न हो जिनमें सभी पर "आज और अभी" प्रभाव पड़ रहा है, तबतक न्यायालय की नैतिक साख का हनन होता रहेगा। ऐसे लेखों का विश्लेषण आप हमारी साइट बोधि न्यूज़ पर, और हमारे यूट्यूब चैनल पर देख सकते हैं।
रिक्त पदों की स्थिति :
उच्चतम न्यायालय : १०% रिक्त (३#), सभी उच्च न्यायालय : ४३% रिक्त (४६४ #)
समस्या अभी भी अनसुलझी है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि देश में न्याय की प्रतिष्ठा होनी चाहिए और इसे पटरी से उतरा हुआ नहीं माना जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि इस समस्या और गतिरोध का सौहार्दपूर्ण समाधान ढूँढा जाये। अंततः समय पर प्रदान न किया गया न्याय, न्याय की वंचितता के ही समान है!
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- राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बहस - एक नए रूप में
- न्यायमूर्ति जे.एस.खेहर (०४ जनवरी २०१७ को शपथ विधि) की मुख्य न्यायाधीश पद हेतु उम्मीदवारी को एक रोचक और अनपेक्षित चुनौती तब मिली तब वकीलों के एक संगठन - नेशनल लॉयर्स कैंपेन फॉर जुडिशल ट्रांसपेरेंसी एंड रिफॉर्म्स (न्यायिक पारदर्शिता और सुधार हेतु अधिवक्ताओं का राष्ट्रीय अभियान) - ने एक सिविल रिट याचिका उच्चतम न्यायलय में लगाई और मांग की कि न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर, जो न्यायमूर्ति खेहर से वरिष्ठ हैं, को भारत का ४४वां मुख्या न्यायाधीश बनाया जाये! इस याचिका में तर्क था कि न्यायमूर्ति खेहर वकीलों की छोटी-छोटी त्रुटियों पर कड़ा रुख लेते हैं, और बड़े वकीलों को समर्थन करते हैं। न्यायमूर्ति आर.के. अग्रवाल और डी.वाय. चंद्रचूड़ ने इन तर्कों को ख़ारिज किया कि न्यायमूर्ति खेहर ने एक पांच सदस्यों की संवैधानिक पीठ के मुखिया के रूप में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एन.जे.ए.सी.) को रद्द किया था, जिससे उन्हें स्वयं को फायदा हुआ, क्योंकि उस निर्णय ने कॉलेजियम प्रथा को पुनर्जीवित कर दिया था। पीठ ने इतना काफी माना कि कॉलेजियम में केवल मुख्या न्यायाधीश ही नहीं थे, वरन उच्चतम न्यायालय के ४ अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश भी थे। वकीलों के संगठन ने ये भी दावा किया कि उच्च न्यायपालिका में आ रहे न्यायाधीश "केवल कुछ परिवारों से ही होते हैं" और "ये केवल कुछ व्यक्तियों की अनन्य जागीर (एक्सक्लूसिव डोमेन) नहीं हो सकता"। समाचार यहाँ देखें
सत्यमेव जयते!
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